हम जीत सकते हैं. ये एह्सास पहले था या नहीं, अब इस पर बहस बेकार है. हाँ, ये ज़रूर है कि अपने जीतने के एहसास को हमें जिंदा रखना होगा. हम अगर ऐसा नहीं कर पाए तो गाँधी के बाद भारत के अन्ना की भी मौत हो जाएगी. जब गांधी को मारा गया तो उन्हें मारने वाले बहुत कम थे. आज अन्ना के साथ जितने खड़े हैं, उनकी तादाद तो बहुत है मगर अन्ना को रास्ते से हटाने की कोशिश में लगे लोग भी कम नहीं हैं.
देश में जहाँ भरष्टाचार अपने चरम पर है और साफ़ सुथरी छवि वाले प्रधानमंत्री डाक्टर मनमोहन सिंह को भी अपनी पगड़ी बचाने में दिक्क़त आ रही है, उस हालत में भारत का अन्ना महफूज़ कैसे रह सकता है, ये अपने आप में सोचने का विषय है. हमें याद है के जब अन्ना हजारे ने लोक पाल बिल की बात उठाई थी तब देश के शाषक वर्ग के लोग चुप थे. वो पेट भर कर उस वक़्त भी खाते रहे जब अन्ना ने आमरण अनशन शुरू कर दिया. अरब देशों में जारी जनक्रांति से अलग इस जन आन्दोलन ने सरकार को उस वक़्त चकित कर दिया जब रोटी, कपडा और माकन के मसअलों में उलझने के बावजूद लोगों की एक बड़ी तादाद इस आन्दोलन से जुड़ने लगी. खास तौर से स्कूली बच्चों ने इस में बड़ी जान फूंकी.
बालीवुड से लेकर आम जनसेवी और स्टुडेंट्स जब बड़ी तेज़ी के साथ अन्ना के साथ आने लगे, तब जाकर सरकार और उसके मंत्रियों की चालें भी थोड़ी तेज़ हुईं.
बैठकों के इस दौर में अन्ना की सीधी सादी बात को मानने से जियादा अपने आप को बचाने पर विचार होने लगा. जब अन्ना और उनके साथ पूरे देश की आम जनता की हिम्मत और हौसले को सरकार भांप गई, तब जाकर वो थोडा झुकने पर राज़ी हुई. इसे लोकतंत्र की जीत का नाम दिया जा रहा है. मुझे ये खुशफहमी नहीं है. देशवासियों की लड़ाई सियासतदानों से है, और वो इतनी जल्दी गद्दी नहीं छोड़ते. अगर उनसे देश का राजकाज नहीं संभलता है तो वो देश को बांटने और आम लोगों को मारने और मरवाने से भी नहीं चूकते. भारत के सभी अन्ना को इन्हीं सियासतदानों से खतरा है.
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