Tuesday, June 28, 2011

मुश्किल है खुद को कटघरे में खड़ा करना

उत्तर प्रदेश में एक मीडिया कर्मी के साथ पुलिस की बदसुलूकी ने एक बार फिर ये सवाल खड़ा कर दिया है कि सत्ता और प्रशासन वाले मीडिया के लोगों को आखिर समझते क्या हैं? ये सवाल इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि उसके बाद ही मीडिया वाले अपना बचाव कर सकते हैं. लेकिन इससे भी बड़ा सवाल मेरे नज़दीक ये है कि खुद मीडिया वाले अपने आपको क्या समझते हैं.

मेरे दोनों सवालों पर ढेर सारे सवालात उठ सकते हैं. खासतौर से ऐसे समय में जब मीडिया वाले अपने ऊपर हुए हमले की निंदा करने और दोबारा ऐसी हरकत ना हो, उसे सुनिश्चित करने के लिए धरना प्रदर्शन कर रहे हैं. लेकिन इन हालात में भी सवाल उठाने का साहस मुझे मीडिया के दस वर्षों से भी ज्यादा के तजुर्बे ही ने दिया है. मुझे मालूम है कि मुश्किल वक़्त में खुद को कटघरे में खड़ा करना और भी ज्यादा मुश्किल होता है. इस सब के बावजूद मुझे लगता है कि मीडिया वालों को अपने बारे में विचार करना चाहिए. उन्हें अपने से ये हिसाब माँगना चाहिए कि वो जब दूसरों से सवाल पूछते हैं तो कुछ ऐसे ही कड़वे कसैले सवालों का उनके पास क्या जवाब होगा?

मीडिया में कई बरसों से रहते हुए भी मैं तथाकथित मेनस्ट्रीम मीडिया का हिस्सा नहीं बन पाया. इसमें मेरा अपना ही दोष ज्यादा है. अपना दोष इसलिए कि मैंने ख़बरों के लिए कभी सियासी लीडरों और अफसरशाहों का दरवाज़ा नहीं खटखटाया. मुझे लगता रहा कि खबर वो है जिसका जनम अपने आप होता है. वो सड़कों और चौराहों पर बिखरी पड़ी रहती है और उन्हें ही हम समेट कर एक साथ बहुत से लोगों तक पहुंचाते हैं. मुझे लीडरों की प्रेस कांफ्रेंसों का मतलब समझ में नहीं आता. हम वहां क्यों दौड़े चले जाते हैं और ख़ासतौर से प्रेस कांफ्रेंस में कही जाने वाली बातों पर गौर करने से ज्यादा खाने और उससे भी अधिक पीने की तरफ क्यों देखते हैं? क्या मीडिया वालों के लिए सरकार की बात को लोगों तक पहुंचाना ज्यादा  ज़रूरी है या फिर लोगों की बात सरकार तक!

एक और बात हम मीडिया वाले अक्सर भूल जाते हैं. हमें शैख़ चिल्ली की दुनिया में रहने में मज़ा आता है. हम अपने इर्द गिर्द बहुत बड़ा भरम पाल लेते हैं. मिसाल के तौर पर हम अपने आपको आज़ाद मीडिया वाला कहते हैं. सच बोलने वाला कहते हैं लेकिन करते वही हैं जो कंपनी का मालिक हम से कहलवाना चाहता है. हम दूसरों से ईमानदारी चाहते हैं, मगर अपने लिए नहीं, क्योंकि ऐसी सूरत में हमें ना अपनी गाड़ी मिल पाएगी और ना ही हम अच्छे और पौश एरिया में मकान खरीद सकते हैं. हम रिश्वत और भ्रष्टाचार के खिलाफ तो बहुत लिखते हैं, लेकिन उसके दायरे में खुद को नहीं लाते. मीडिया वाले हक की बात भी बहुत करते हैं, लेकिन उस जगह के लिए नहीं जहाँ वो खुद काम करते हैं. यदि ऐसा नहीं होता तो हमें कभी ये खबर ज़रूर पढने या देखने को मिल जाती कि फलां मीडिया हाउस की कैंटीन से बाल मजदूर आज़ाद कराए गए और फलां मीडिया हाउस के ड्राइवर केवल आठ घंटे की ही डयूटी करते हैं. हमें ये भी सुनने का मौक़ा मिलता कि मीडिया हाउसों में काम करने वालों को कभी प्रताड़ित नहीं किया जाता.

उत्तर प्रदेश की राजधानी में आई बी एन 7  के पत्रकार के साथ पुलिस ने जो दुर्व्यवहार किया वो निंदनीय तो है मगर कोई पहला वाक़ेआ नहीं है. आजकल इसी चैनल में ऊँची पोस्ट पर बिराजमान एक और पत्रकार के साथ इससे भी ज्यादा बुरा सलूक किया गया था. मैं दोनों घटनाओं से आहत हूँ. मुझे तब भी लगा था और आज भी लगता है कि मीडिया वालों के साथ इस सलूक में दूसरों की ग़लती के साथ साथ अपनी भी ग़लती कम नहीं होती.

लड़कियों के साथ छेड़छाड़ और उनकी इज्ज़त लूटने की जो घटनाएं उत्तर प्रदेश में हो रही हैं, उन्हें किसी भी स्तर पर और किसी भी समाज में ठीक करार नहीं दिया जा सकता. इसलिए मीडिया अगर ऐसे सवालों को उठाता है तो ये अच्छी बात है. लेकिन, ज़रा ठहरिये! और सोचिये कि उत्तरप्रदेश में ये सब बस पिछले कुछ ही महीनों से हो रहा है, या इसका सिलसिला बहुत दिनों से चला आ रहा है. ये क़ानून व्यवस्था की बात है या समाज के गिरते स्तर की. इसके साथ ही ये भी जानना होगा कि मीडिया जागा है या उसे जगाया गया है क्योंकि उत्तरप्रदेश में अगले कुछ ही महीनों में इलेक्शन होने वाले हैं.

कहते हैं सच्ची बात कड़वी होती है, मेरी बात भी सच्ची और कड़वी है. कम से कम मैं मीडिया और ख़ासतौर से मीडियाकर्मियों को जितना जान पाया हूँ उसका सार यही है कि भारत के सभी नहीं तो बहुत से मीडियाकर्मी आज भी अपने हक से वंचित हैं और वो दुनिया जहान की बातों को जानने और उन्हें लोगों तक पहुंचाने के बावजूद खुद अपनी तथा अपने ही घर की खबर नहीं होती. उन्हें अपने मौजूदा भरम से खुद को और अपने साथियों को निकालना होगा तभी शायद देश में मीडिया और मीडिया वालों की हालत बदलेगी वरना हम केवल प्रेस कांफ्रेंस में खाने पीने और मार खाने वाले बन कर रह जाएंगे. सियासत वाले बड़ी मोटी चमड़ी के  होते हैं, उन्हें किसी बात से कोई फर्क नहीं पड़ता.

Saturday, June 25, 2011

मुलाक़ात और बात जारी रहे


पाकिस्तान से एक अच्छी खबर आई है. ये सुन कर आजकल किया कभी भी अटपटा लग सकता है, मगर खबर सच्ची मालूम होती है. खबर है कि इस्लामाबाद में भारत पाक ने विदेश सचिवों की बातचीत में ये तय किया है कि दोनों देश आपसी मसले को बातचीत के जरिए सुलझाएँगे. इसी के साथ दोनों ने ये भी तय किया है कि अब एक दुसरे के खिलाफ परोपगंडा नहीं करेंगे. आम लोगों की भाषा में बात करें तो दोनों देशों ने एक दूसरे  को गाली देने से तोबा करने का एलान किया है. इस पर दोनों कितने दिन टिके रहते हैं, ये तो आने वाला वक़्त ही बताएगा लेकिन हमें सकारात्मक ख़बर पर सकारात्मक ढंग से सोचने की आदत डालनी चाहिए. अभी तक हिंदुस्तान में पाकिस्तान और पाकिस्तान में हिंदुस्तान के बारे में अच्छा सोचने की आदत नहीं है. किया हाल ही में हुई बात चीत  से ये सोच बदलेगी?

नए दौर की बातचीत से सभी को कुछ नई उम्मीदें होती हैं, हमें भी होनी चाहिए. आखिर हिंदुस्तान और पाकिस्तान में विदेश नीति और खासतौर से एक दूसरे के साथ रिश्तों के लिए नीति बनाने वालों को अक्ल कियों नहीं आ सकती? कब तक दोनों देशों के पालिसी-साज़ बेवकूफों की जन्नत में रहेंगे? उन्हें एक बात कियों समझ में नहीं आती कि दहशतगर्दी सिर्फ देशों ही के लिए नहीं, इंसानों और इंसानियत के लिए भी खतरनाक है. इसी के साथ ये भी समझना होगा कि दूसरों के हाथों कि कठपुतली बन कर सैकड़ों हज़ारों साल जीने से तो  आज़ादी के साथ एक दिन की ज़िन्दगी जीना बेहतर है.

हिंदुस्तान और पाकिस्तान के आपसी रिश्तों की कहानी पर ग़ौर करें तो मालूम होगा कि दोनों को एक दुसरे पर आज तक भरोसा नहीं हुआ. इतने ही पर बस होता तो शायद अब तक बात बन जाती, लेकिन आज़ादी और बटवारे के बाद दोनों को कभी अपने और अपनी जनता पर भी भरोसा नहीं रहा. यही सबसे खतरनाक बात हुई है. जिस देश के नेताओं और अफसरशाहों को अपने देश की जनता पर भरोसा नहीं होता, उसका हाल कैसा होता है, ये हिंदुस्तान और पाकिस्तान की हालत को देख कर लगाया जा सकता है. हाँ दोनों पड़ोसियों को अगर किसी पर थोडा भी भरोसा है तो वो अमरीका बहादुर हैं. पहले ये गौरव इंग्लैण्ड को हासिल था. अब अमरीका जी जो चाहें दोनों करने के लिए तैयार रहते हैं. इसी लिए जब इस्लामाबाद में विदेश सचिवों की बातचीत के बाद वाशिंगटन ने उस पर ख़ुशी जताई तो मुझे अच्छा नहीं लगा बल्कि उससे भी ज्यादा ये हुआ कि मुझे डर लगने लगा कि एक बार फिर कहीं बहुत से बेक़सूरों की  जान ना चली जाए.

मेरे अंदर ये डर यूँही पैदा नहीं हुआ. इसकी लम्बी तारीख है. जब जब भारत पाक के बीच रिश्ते अच्छे होने की ख़बर आई है, कोई ना कोई आतंकवादी हमला ज़रूर हुआ है. उसके बाद जो कुछ होता है वो सब को पता है.

मुझे इस में कोई शक नहीं के हिंदुस्तान की सरज़मीन पर जो दह्शत्गर्दाना हमले हुए हैं, उसके तार पाकिस्तान से नहीं जुड़े हैं, लेकिन हमने कभी ये जानने  की कोशिश कियों नहीं की कि दिन रात जिहाद जिहाद बकने वाले ओसामा बिन लादेन को जब अमरीका पैदा कर सकता है और काम पूरा होने पर उसे मार सकता है तो किया वो उस पाकिस्तान में आतंकवादियों के दो चार दस ग्रुप तैयार नहीं कर सकता जिसकी ज़मीन के हर कोने में वो शुरू ही से बेरोक टोक अपना काम अंजाम दे रहा है? डेविड कोलमैन हेडली और तहव्वुर हुसैन राणा किया केवल लश्कर ही के आदमी हो सकते हैं, वो सी. आई. ए. के लिए भी कम करने वाले क्यों नहीं हो सकते? इससे भी बड़ा सवाल ये कि जब ओसामा जिहाद के नाम पर अमरीका के इशारों पर काम करता था तो लश्कर किया सी. आई. ए. के लिए काम नहीं कर सकता? एक और अहम बात, आतंकवाद के खिलाफ लड़ने वाला अमरीका हेडली और राना को भारत के हेवाले कियों नहीं करता जबकि वो भारत को अपना दोस्त और आतंकवाद का शिकार मानता है?

भारत और पाकिस्तान के रहनुमाओं को इन सवालों पर विचार करना चाहिए और अमरीका बहादुर से ज्यादा अपने और अपने देश की जनता पर भरोसा करना चाहिए तभी दोनों के रिश्ते बेहतर हो सकते हैं और दोनों देशों  से करप्शन भी मिट सकता है.