Sunday, July 31, 2011

भारत - पाक संबंध

रंग लाती है हिना पत्थर पे घिस जाने के बाद!

भारत और पाकिस्तान के संबंध में फिलहाल कोई खास बदलाव नहीं आया है, मगर माहौल अच्छा है. अच्छी और महत्वपूर्ण बात यह है कि इसका एहसास दोनों तरफ है. दोनों देशों के सत्ताधारी सकारात्मक बयान दे रहे हैं. एक दूसरे के  प्रतिद्वंद्वी नहीं, हलीफ़ बनने के इच्छुक लगते हैं. यदि ये सिलसिला जारी रहता है तो क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन उत्पन्न हो सकती है.

ये परिवर्तन और इसका सुखद एहसास पाकिस्तान की विदेश मंत्री श्रीमती हिना रब्बानी खर की युवा उम्र के कारण है या फिर इस्लामाबाद और नई दिल्ली के नीति निर्माताओं के कारण, जो भी हो, माहौल अच्छा है. उसे बनाए रखना चाहिए. कहते हैं  आदमी यदि ठान ले तो बहुत कुछ हो सकता है. भारत और पाकिस्तान के नेताओं को भी आपसी रिश्तों में सुधार लाने के लिए प्रतिबद्ध होना पड़ेगा. इस सिलसिले में भारत के विदेश मंत्री एस एम कृष्णा ने 27 जुलाई को श्रीमती हिना रब्बानी के साथ बातचीत से पहले उनका स्वागत करते हुए बड़ी अच्छी बात कही. उन्होंने कहा कि भारत अपने पड़ोसी देश पाकिस्तान के साथ अच्छे रिश्ते चाहता है. यह केवल दोनों देशों ही में शांति के लिए नहीं बल्कि पूरे क्षेत्र और इससे बाहर के लिए भी लाभकरी है. उन्होंने ने कहा कि हमारे और आने वाली पीढ़ियों के ऊपर ये ज़िम्मेदारी है. इस संदर्भ में श्रीमती हिना रब्बानी खर का बयान भी काफी उत्साहजनक है. उन्होंने कहा कि दोनों देशों के बीच संबंधों को अतीत का बंधक नहीं बनाया जा सकता.

भारत और पाकिस्तान के बीच विदेश मंत्री स्तर की बातचीत से पहले दोनों नेताओं ने जो बयान दिए थे, वह उनके बीच आपसी बातचीत के बाद हुई संयुक्त प्रेस कान्फेरेंस में भी नज़र आई. ऐसा पहले कम होता था. विशेष रूप से बातचीत के एक दो दिन बाद तो किसी न किसी ओर से सख्त बयानबाज़ी हो ही जाती थी. इसमें अगर सत्ताधारी दल किसी वजह से चूक जाते तो विपक्ष के नेता मैदान में कूद पड़ते. इस बार सावधानी बरती जा रही है. इसका कारण क्या है और दोनों देश आपसी रिश्तों के संबंध में अपनी नीतियों में इतना बड़ा बदलाव लाने के लिए क्यों राजी हुए हैं, यह जानने के लिए पीछे मुड़कर देखना होगा. लौट पीछे की तरफ ऐ गर्दिशे ऐयाम तू!भूटान की राजधानी थिम्पू में अप्रैल 2010 में सार्क का सोलहवां शिखर सम्मेलन आयोजित हुआ. इस अवसर पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और उनके पाकिस्तानी समकक्ष यूसुफ रजा गिलानी के बीच मुलाकात हुई. दोनों नेताओं ने आपसी रिश्तों को नई दिशा देने का संकल्प किया . इसे दक्षिण एशियाई क्षेत्र की सौभाग्य कहिए कि दोनों ओर से अब तक उसी संकल्प और प्रतिबद्धता को व्यक्त किया जा रहा है. यहाँ यह बता देना ज़रूरी है कि दोनों देशों ने विभिन्न समस्याओं को लेकर अपने रुख़ में कोई बुनियादी बदलाव नहीं किया है. हां, उनके समाधान के लिए बरसों बाद अलग रास्ता ज़रूर अपनाया है. भारतिय उपमहाद्वीप की जनता के लिए दोनों देशों की सरकारों का यह एक बड़ा उपहार है.

भारत और पाकिस्तान के बीच संबंधों को बेहतर बनाने के प्रयासों पर नज़र डालें तो अक्सर नाकाम ही दिखाई देंगे. उसकी एक बड़ी वजह अतीत के घिसे पिटे रास्ते पर चलना था. दोनों देश कश्मीर पर बात करने और नहीं करने को लेकर अटल हो जाते थे . दोनों के अपने अपने राग थे. भारत और पाकिस्तान में सरकार किसी भी पार्टी या व्यक्ति की हो, वही राग अन्दर और बाहर दोनों जगह अलापा जाता था. जब जनता और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के कान भी इस तरह के राग से पक गए तो इसमें घुसपैठ और आतंकवाद का मुद्दा भी जोड़ दिया गया. भारत कश्मीर और अन्य क्षेत्रों में आतंकवादी घटनाओं के लिए पाकिस्तान के सर आरोप मढ़ता तो उधर पाकिस्तान भी अपने अंदरूनी हालात के लिए नई दिल्ली को जिम्मेदार मानता रहा. अपनी धरती पर जब दोनों हारने लगे तो लड़ाई के लिए एक तीसरे देश को चुना गया. इसके लिए अफगानिस्तान से बेहतर विकल्प शायद ही किसी को मिले. अमेरिका ने भी पूर्व सोवियत संघ के खिलाफ लड़ाई के लिए अफगानिस्तान ही को युद्ध के मैदान के रूप में चुना था. इसके लिए आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक युद्ध के तथाकथित योद्धा अमेरिका ने अफगानिस्तान के 'मुजाहिदीन' से मदद ली. उनमें तब मुल्ला उमर और ओसामा बिन लादेन भी शामिल थे. बाद में दोनों अमेरिका के नहीं रहे, इसलिए आतंकवादी बन गए. ओसामा बिन लादेन को अमेरिका ने मार देने  का दावा किया है. सच्चाई का बाहर आना अभी बाकी है. अफ़ग़ानिस्तान में आज भी भारत और पाकिस्तान के बीच बरतरी की जंग जारी है. पाकिस्तान वहां अपना असर बनाए रखना चाहता है तो भारत अपने पारंपरिक संबंधों की बहाली और बर्क़रारी चाहता है.

अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में इस तरह की प्रतिद्विन्दिता और जंगें आम बात हैं. इसलिए अगर भारत और पाकिस्तान अपने अपने असर को बनाए रखने के लिए अफघानिस्तान में मुकाबला कर रहे हैं तो इसमें कोई बुराई नहीं है. लेकिन इसके लिए निर्दोषों को शिकार बनाने से बचना होगा . अतीत में पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आई एस आई ने कई ऐसे आतंकवादी हमलों को अंजाम देने में मदद की जिसमें भारत के राजनयिक और सुरक्षा अधिकारियों के साथ अफगानिस्तान के कई निर्दोष नागरिक भी मारे गए. यह बातें भारत सरकार या मीडिया में प्रकाशित खबरों के आधार पर नहीं कह रहा हूं. मुझे अफ़ग़ानिस्तान के कई ऐसे लोगों से मिलने का मौका मिला जो अपनी वेश भूषा से सियासत्बाज़ नहीं मालूम होते थे. वह युद्ध और युद्ध जैसी स्थिति से परेशान थे. परेशानी में आदमी से सच की उम्मीद होती है, मैंने भी उन पर भरोसा किया.

अब एक तरफ दोनों देश भूटान में किए गए अपने संकल्प और इरादे पर कायम हैं तो दूसरी ओर परंपरागत प्रतिद्वंद्वी के रूप में अफ़ग़ानिस्तान में लड़ाई लड़ रहे हैं. उसे आदत और स्वभाव का नतीजा कहा जा सकता है. दोनों देशों के नीति निर्माताओं ने किसी हद तक अपनी आदतें बदल ली है स्वभाव वह बदल नहीं सकते.भारत और पाकिस्तान के नेताओं ने बातचीत के लिए जिस रास्ते को चुना है, वह बहुत ही आसान है. परीक्षा की घड़ी में ऐसा ही किया जाता है. पहले आसान सवालों को हल किया जाता है, फिर मुश्किल सवालों पर ध्यान दिया जाता है. जो उम्मीदवार इस सिद्धांत पर अमल नहीं करते वह असफल हो जाते हैं. भारत और पाकिस्तान भी अब तक इसलिए विफल होते आए हैं. दोनों आसान और जल्दी से हल होने वाली समस्याओं पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं. इसके लिए माहौल भी तैयार क्या जा रहा है.

इस्लामाबाद और नई दिल्ली के बीच संबंधों में सर्दमेहरी के लिए कश्मीर को जिम्मेदार माना जाता है. दोनों ने इस पर बातचीत जारी रखने का संकल्प किया है. इस दौरान एक एक करके छोटी छोटी समस्याओं और मतभेदों को सुलझाने की कोशिशें की जा रही हैं. एस एम कृष्णा और श्रीमती हिना रब्बानी खर की बातों से हम यही नतीजा निकाल सके हैं. लेकिन कश्मीर के कुछ नेता पाकिस्तान को इतनी आसानी से आगे नहीं बढ़ने देंगे. पाकिस्तान के लिए भी कश्मीर के मुद्दे को जीवित रखना कभी कभी फायदेमंद लगता है. इसलिए हिना रब्बानी ने भी कृष्णा के साथ बातचीत से पहले कुछ कश्मीरी नेताओं से मुलाक़ात की थी. उसे पाकिस्तान की पारंपरिक और पुरानी नीति का हिस्सा मानती हैं. उन्हें इस तरह की बैठकों में कोई बुराई नज़र नहीं आती. भारत में कुछ लोगों को इस पर आपत्ति ज़रूर हुई है. उनकी आपत्ति बहुत उचित नहीं लगती. कश्मीर के अलगाववादी नेताओं से नई दिल्ली में सत्ता की बागडोर संभालने वाले भी मिलते रहे हैं. अब उनसे मुलाकात और बात के लिए एक तीन सदस्यीय टीम मेहनत कर रही है.

जम्मू वो कश्मीर पर दोनों देशों का दावा है. भारत उसे अपना अभिन्न हिस्सा मानता है. पाकिस्तान कहता है कि यह हिस्सा उसे मिलना चाहिए था. कश्मीर में कुछ ऐसे भी लोग हैं जो दोनों से अलग रहना चाहते हैं. ऐसे लोगों की संख्या बहुत कम है . इस के आधार पर देशों का बटवारा नहीं किया जा सकता. कश्मीर की आज़ादी की  भी दूर दूर तक कोई संभावना नजर नहीं आती. भारत के साथ ज़बरदस्ती नहीं की जा सकती. पाकिस्तान को ताक़त के बल पर पाक अधिकृत कश्मीर छोड़ने  के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता.

ऐसी स्थिति में दोनों देशों के लिए एक रास्ता बचा था. वह परीक्षा में पहले आसान सवालों को हल करने वाला रास्ता था. कामो-बेश 60 वर्षों के बाद भारत और पाकिस्तान के नीति निर्माताओं को बुद्धि आई है. दोनों ये समझने के लिए तैयार हो गए हैं कि आसान तरीके से बड़ी समस्याओं का समाधान हो सकता है. भारत और पाकिस्तान के बीच भी सभी महत्वपूर्ण और बड़े मुद्दे बातचीत के जरिए हल हो सकते हैं. बस इसके लिए धैर्य की आवश्यकता है. एक मंजिल की ओर लगातार बढ़ते रहने से एक दिन वो मिल ही जाती है. श्रीमती हिना रब्बानी खर और एस एम् कृष्णा ने नई दिल्ली में नाश्ते पर मुलाकात करने के बाद अगले साल पाकिस्तान में दोपहर का खाना खाने का इरादा जाहिर किया है. इसमें अगर उन्हें सफलता मिलती है तो फिर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह काबुल में रात का खाना खा कर अपना सपना पूरा होते देख सकते हैं. यह मौका पूरे क्षेत्र की जनता के लिए सार्वजनिक ख़्वाब पूरा होने जैसा ही होगा.

Saturday, July 30, 2011

पत्र दिवस

रफ़्तार के चक्कर में खोती लेखनी की धार

मोहम्मद शहजाद


संदेश माध्यमों ने सुस्त-रफ़्तार कबूतरों से लेकर तेज -रफ़्तार ई-मेल और एस.एम.एस. तक का सफर तय कर लिया है। इंटरनेट और सेल-फोन जैसी अत्याधुनिक टेक्नोलॉजी ने भले ही फौरन पैगाम भेजने और पाने की हमारी खवाहिश पूरी कर दी हो... लेकिन रफ़्तार के चक्कर में हम कहीं न कहीं अपनी लेखनी की धार खोते जा रहे हैं।

ज़रा याद कीजिए! आपने किसी को पिछला पत्र कब लिखा था? शायद ही हम में से कोई हो, जिसे ये याद हो। अब तो पूरी एक ऐसी नई नस्ल परवान पा चुकी है जिसे खत-व-किताबत के बारे में कोई ज्ञान ही नहीं है। पत्र-लेखनी के इसी महत्व को याद करने के मकसद से ३१ जुलाई को 'विश्व पत्र दिवस' मनाया जाता है।

आमतौर पर 'डे' या विशेष दिवस मनाने का ये चलन पश्चिम से आया है लेकिन पत्र-लेखनी की शानदार रिवायत को याद करने की ये कोशिश हमारे अपने ही देश से शुरू हुई है। पत्र-दिवस मनाने के लिए ३१ जुलाई का चयन करने के पीछे कोई खास वजह तो नहीं है... लेकिन इस मुहिम को छेडने वालों में से एक शरद श्रीवास्तव इसे मशहूर लेखक मुंशी प्रेम चंद को समर्पित करते हैं जिनका जन्मदिन भी ३१ जुलाई ही है। वैसे ये भी माना जाता है कि इसी दिन इंग्लैंड में पहला पत्र पोस्ट हुआ था।

वैसे डाक-सेवाएं आज भी कार्यरत हैं... लेकिन अब उनका महत्व सरकारी पत्र-व्यवहार और पार्सल वगैरह भेजने तक ही सीमित रह गया है। सूचना प्रौद्योगिकी के इस दौर में लोगों ने डाकघरों का रुख  करना कम कर दिया है। अब न लोगों को डाक बाबुओं का इंतजार रहता है और न ही डाकियों के पास खातों का वो अंबार रहता है। जिसे देखो बस ई-मेल, सोशल नेटवर्किंग साइट्‌स और शार्ट मेसेज सर्विस यानी एस.एम.एस. पर उल्टी-सीधी भाषा लिखने में लगा है। और ऐसा हो भी क्यों ना! आखिर इस भाग-दौड  भरी ज़िन्दगी में लोगों के पास अंतर्देशीय, पोस्टकार्ड और लिफाफे डाकघर से लाने, उसपर हाथ से लिखने और पोस्ट करने की फुर्सत ही कहां है।

लेकिन जल्द पैग़ाम भेजने की चाहत में हमसे पत्राचार का वो रिवायती तरीका छूटता गया, जिससे लोग लेखनी का गुर सीखते थे। देश में ही कई मिसालें ऐसी हैं जिनके खत एक साहित्य के तौर पर याद किए जाते हैं। उनमें पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का अक्सर ज़िक्र आता है जो अपनी बेटी इंदिरा जी को जेल ही पत्र लिखकर ज्ञानवर्धक खजाना भेजते रहते थे। दूसरे मशहूर शायर मिर्ज़ा गालिब के खातों की मिसाल दी जाती है जिनके खत से ऐसा लगता है कि वो सामने बैठे किसी शख्श से गुफ्तगू कर रहे हों।

लोग पत्र लिखते थे तो उससे उसका पूरा व्यक्तित्व झलकता था। हैंड-राइटिंग के विशेषज्ञ तो आज भी लिखावट से व्यक्तित्व का अंदाज़ा लगा लेते हैं। हस्तलिखित पत्रों की सीधी, आडी, तिरछी लाइनों से उसके लिखने वालों की जेहनियत का आभास हो जाता है। खत की हैंडराइटिंग लिफाफे से खत का मजमून भांप लेने का मुहाविरा इसी लिए काफी प्रचलित है। सुदूर बैठे किसी भी व्यक्ति को खत पा जाने भर से ही उसके वतन की मिट्‌टी की खुशबू आने लगती थी। अपने नजदीकियों और करीबियों को खत लिखने और उसका जवाब आने के इंतजार की शिद्दत ही अजीब थी। फिर प्रेम-पत्र लिखने और पढने का तो दौर ही अजीब था। ऐसे खत बरसों तक लोगों की किताबों, संदूक, बक्से की शोभा बने रहते थे और ऐसे सहेज कर रखे जाते थे जैसे कोई बहुत कीमती सरमाया हो। पत्र की अहमियत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मुंबईया फिल्मों में भी इसपर अनेक गाने लिखे गए हैं। 'नाम' फिल्म में तो पंकज उधास के एक कन्सर्ट में ''चिट्ठी आई है आई है चिट्ठी आई है'' गाने पर पाकिस्तानी अफताब भाई भी रोने पर मजबूर हो जाते हैं। बहरहाल पत्र-दिवस मनाने का मकसद इस खोते हुए चलन से आज की पीढी को जागरुक करना है।

Friday, July 22, 2011

मुंबई में धमाके और देश में दहशत...!




मुंबई में एक बार फिर ज़िन्दगी पटरी पर लौट आई है. यह अच्छी बात है. हम आतंकवादियों को इसी तरह शांतिपूर्ण तरीके से जीवन जीने का हौसला दिखाकर मात दे सकते हैं. अगर हम भी उनकी तरह ही डर और दहशत फैलाने वाली बात करें तो इंसान और इंसानियत के दुश्मनों में कोई अंतर नहीं रह जाएगा. यह सीधी सादी बात देश के कुछ मीडिया घरानों और राजनेताओं को समझ में नहीं आती है. उनमें मौत और तबाही के आलम में भी ईमानदारी से कहने और सुनने की शक्ति नहीं है. इनकी ऐसी हरकतों से देश को कितना बड़ा नुकसान उठाना पड़ता है, इसे वो भली भांति जानते हैं. इसके बावजूद अपनी हरकतों से बाज नहीं आते. मुंबई में 13 जुलाई की शाम को एक बाद अन्य तीन बम धमाकों के कुछ मिनटों बाद ही देश के कुछ निजी टीवी चैनलों और अखबारों ने अपने आप ही तरह-तरह की जानकारी प्रदान करना शुरू कर दी. देश की प्रमुख जांच एजेंसियों से पहले ही चैनलों और अख़बारों के प्रतिनिधियों को मालूम हो गया कि इसमें किस आतंकवादी संगठन का हाथ है. उसी के साथ देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी भाजपा ने भी सरकार से पाकिस्तान नीति की समीक्षा की मांग करना शुरू कर दी. अजीब बात है. देश का गृहमंत्री अब तक किसी संगठन के बारे में संकेत देने से भी इनकार कर रहा है और दूसरी ओर कुछ मीडिया कर्मियों प्रतिनिधियों के साथ भाजपा और शिवसेना को सब कुछ मालूम हो गया. दाल में कितना काला है या पूरी की पूरी दाल ही काली है, यह अभी नहीं तो थोड़े दिनों बाद ज़रूर मालूम हो जाएगा. मुझे विश्वास और भरोसा इसलिए है क्योंकि अब देश में आतंकवादी घटनाओं की जांच प्रक्रिया केवल सिमी और इंडियन मुजाहिदीन तक ही सीमित नहीं रहती. इस भरोसे के बावजूद ये डर अपनी जगह कायम है कि मुंबई बम धमाकों के आरोप में बहुत से बेकसूरों को एक बार फिर जेल की सलाखों के पीछे डाल दिया जाएगा. इसकी वजह यह है कि जांच को रास्ते से भटकाने की कोशिशें लगातार जारी हैं. देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए इस तरह के प्रयास बहुत ही खतरनाक हैं. शायद आतंकवादी हमलों से भी अधिक खतरनाक! क्योंकि उसके परिणाम में जहां बहुत से निर्दोष जेल भेज दिए जाएंगे वहीं जांच एजेंसियां और सुरक्षा दस्ते दोषियों तक पहुंचने में नाकाम रहेंगे. इस तरह आतंकवादियों को अपनी कार्रवाई करने के लिए खुली छूट मिल जाएगी. वह अपना काम करते रहेंगे और देश के निर्दोष नागरिक मरते रहेंगे. इससे मीडिया को भी अपनी टी आर पी बढ़ाने में मदद मिलेगी और शासक गठबंधन के साथ अपोजीशन दलों को भी बे सर पैर की कहने का मौका हाथ आ जाएगा. मारे जाती है तो जनता और पकड़े जाते हैं तो मुसलमान. इससे उन्हें क्या फर्क पड़ता है जिनकी ज़िन्दगी का उद्देश्य ही पैसा के लिए सत्ता और सत्ता के लिए पैसा हो. लेकिन अफसोस की बात यह है कि इस खेल में कुछ ऐसे लोग भी जाने अनजाने शामिल हो जाते हैं, जिनकी ईमानदारी पर शक करना मुश्किल है. उनकी देशभक्ति भी आर.एस. एस. और भाजपा की तरह आधी अधूरी नहीं करार दी जा सकती. इसके बावजूद उनके बेतुके बयान को किसी भी रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता. ऐसे ही लोगों में से एक हैं जस्टिस वी. आर. अय्यर.


सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस वी. आर. अय्यर ने मुंबई में हुए आतंकवादी हमलों के बाद अपने एक बयान में कहा है कि भारत का असली दुश्मन फिलहाल पाकिस्तान नहीं बल्कि आतंकवाद है. देश के दक्षिणी राज्य केरल के प्रसिद्ध शहर कोच्चि में जारी अपने इस बयान में उन्होंने कहा कि आतंकवादी कार्रवाई का स्रोत नहीं मालूम होने के कारण असुरक्षा का माहौल बना हुआ है. भारत के लिए सबसे बड़ा दुश्मन पाकिस्तान नहीं आतंकवाद है. आतंकवाद, भ्रष्टाचार के बिना संभव नहीं है. पाकिस्तानियों द्वारा भारत में कोई भी कार्रवाई खुफिया तरीके से ही संभव हो सकता है. यह गोपनीयता रिश्वत और भ्रष्टाचार के अन्य कारकों के बगैर मुमकिन नहीं है. उन्होंने कहा कि प्रत्येक भारतीय इस बात पर नज़र रखें कि उसका पड़ोसी क्या कर रहा है तो फिर आतंकवाद आज की तरह विकसित नहीं हो पाएगा. जस्टिस अय्यर का बयान यहाँ तक तो ठीक है, मगर उसके आगे उन्होंने जो बात कही है वह खतरनाक है. उन्होंने अपने बयान में कहा है कि हालांकि पाकिस्तान सरकार ने मुंबई बम धमाकों की निंदा की है लेकिन भारत के प्रमुख मुस्लिम संगठनों ने इसकी निंदा नहीं की है. जस्टिस अय्यर के इस बयान को उनकी लाइल्मी का नतीजा करार देते हुए उसे नज़र अंदाज़ किया जा सकता है, लिकन नहीं साहब, ऐसा नहीं है. वह जान बूझ कर बोले हैं और खतरनाक बोले हैं. उनके बयान से मुस्लिम दुश्मनी की बू आती है. वह कहते हैं कि वो भारतीय मुसलमानों की देशभक्ति को चुनौती नहीं दे रहे हैं, लेकिन इसके स्तर पर उन्हें शक ज़रूर है. जस्टिस वी. आर. अय्यर का कहना है कि अगर भारत का प्रत्येक मुसलमान इसे अपनी मातृभूमि मानने लगे और इसकी रक्षा करना चाहे तो भारतीय पुलिस और खुफिया एजेंसियां दुश्मन मुस्लिम तत्वों की खुफिया गतिविधियों के बारे में आसानी से जानकारी प्राप्त कर लेंगी. इससे भी एक कदम आगे जाते हुए वह कहते हैं कि प्रत्येक मुसलमान को मुस्लिम संगठनों, खासकर विदेशियों की गतिविधियों पर नज़र रखनी चाहिए.


देश में आतंकवादी गतिविधियों का जो सिलसिला जारी है, वह खतरनाक है. इस सिलसिले को तोड़ने की ज़रुरत है और इसमें देश के प्रत्येक नागरिक की भागीदारी होनी चाहिए. उनमें मुसलमान भी शामिल हैं, लेकिन जिस तरह आर.एस. एस और भाजपा के साथ-साथ जस्टिस वी. आर. अय्यर जैसे लोग सीधे तौर से मुसलमानों पर निशाना साधते हैं, वे ऐसी आतंकवादी घटनाओं से भी ज्यादा ख़तरनाक हैं जिनमें कई बक़सूरों की जान चली जाती है. जान देने से अधिक कठिन होता है बदनामी का दाग लेकर जिंदा रहना, लेकिन यह बात शायद देश के मुस्लिम दुश्मनों को समझ में नहीं आती है.


इसके बावजूद हम यह दावा नहीं कर रहे हैं कि भारत का कोई मुसलमान नाम का नागरिक आतंकवादी नहीं हो सकता या पीछे से आतंकवादियों की मदद नहीं कर सकता. ऐसा संभव है कि एक नहीं दो चार मुसलमान नाम वाले भारतीय मिल जाएं जो पैसे के लिए या किसी और वजह से इस तरह की अमानवीय हरकतों में लिप्त हों, या उन्होंने इसे अपना धंधा बना लिया हो. ठीक उसी तरह जैसे स्वामी असीम नन्द, कर्नल पुरोहित और साध्वी परज्ञा ठाकुर देश्दारोही गतिविधियों में लिप्त रहे, लेकिन इससे देश के सभी हिन्दू नागरिकों पर नज़र रखने की बात नहीं की गई. यह मांग होनी भी नहीं चाहिए. एक-दो की गलतियों की सजा पूरी कौम और समुदाय को बदनाम करके नहीं दी जा सकती.


जहां तक देश के मुसलमानों का सवाल है तो उन्होंने कभी दोषियों के समर्थन में विरोध-प्रदर्शन नहीं किया. वह तो बस यह छोटी सी मांग करते रहे कि किसी भी आतंकवादी घटना की जांच खुली आंखों से की जाए. मुसलमानों ने कभी आर.एस. एस और भाजपा की तरह कर्नल पुरोहित और साध्वी परज्ञा जैसे किसी आतंकवादी के समर्थन में आवाज नहीं उठाई. देश में आतंकवादी घटनाओं के सिलसिले में भाजपा और खुफिया एजेंसियों के कुछ जानिबदार अधिकारियों के दोहरे व्यवहार ही का नतीजा है कि इतनी लंबी लड़ाई के बावजूद हम आज तक देश में आतंकवाद का खात्मा नहीं कर पाए हैं.


इस तथ्य के संदर्भ में भाजपा नेता लाल कृष्ण आडवाणी और पार्टी के प्रवक्ता रवि शंकर प्रसाद के बयानों को समझने की ज़रूरत है. श्री आडवाणी चाहते हैं कि सरकार पाकिस्तान के साथ कूटनीतिक संबंधों पर फिर गौर करे. उधर पार्टी प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद फरमा रहे हैं कि कांग्रेस की वोट बैंक नीति के कारण अब तक आतंकवाद पर काबू नहीं पाया जा सका. अब कोई उनसे पूछे कि साहब आपके कार्यकाल में संसद, अक्षरधाम और दूसरी जगहों पर जो आतंकवादी हमले हुए, उनके पीछे किर तरह के वोट बैंक की राजनीति कारफरमा थी?
आतंकवाद के संबंध में एक बात साफ है, और पूरी दुनिया में इसका अनुभव किया जा रहा है. उसके खिलाफ अब तक लड़ाई केवल इसलिए नाकाम रही है क्योंकि इसमें ईमानदारी नहीं बरती गई है. आतंकवाद का जन्म ज़ुल्मो ज़ियादती और अन्याय के नतीजे में हुआ है या नहीं, यह बहस तलब विषय है, मगर एक सच्चाई सबके सामने है कि आतंकवादियों का कोई धर्म नहीं होता. वह किसी विशेष उद्देश्य के लिए लड़ाई भी नहीं लड़ते और इससे भी बड़ी बात यह है कि उन्हें खुद ही नहीं मालूम होता कि वह क्या कर रहे हैं और उनसे कौन क्या काम ले रहा है? भारत जैसे अनेक धर्मों वाले और अनेकता में एकता वाले देश में जहां गरीबी ने डीरे डाल रखे हैं, जहां बेरोज़गारी का दियो लगातार बड़ा होता जा रहा हो, और जहां देश भक्ति के नाम पर कुछ लोग देश की दुसरे बड़े समुदाय को बेवजह बार बार निशाना बना रहे हैं, वहां तो आतंकवादी घटनाओं की जांच और भी अधिक ईमानदारी के साथ किए जाने की जरूरत है. उसी के साथ मीडिया को अपनी स्वतंत्रता का सम्मान करने की हिदायत भी दी जानी चाहिए. देश में हर छोटे बड़े घटना का फैसला मीडिया द्वारा किए जाने कोशिश , एक खतरनाक रुझान है क्योंकि टी आरपी के चक्कर में वह पूरे देश की साख को दांव पर लगाने से भी नहीं चूकता.


Tuesday, July 19, 2011

तेलंगाना की राजनीति

मार्च 2010 में जस्टिस बी एन कृष्णा के नेतृत्व में तेलंगाना मुद्दे का हल ढूंढने  के लिए एक समिति का गठन किया गया. समिति ने 30 दिसंबर 2010 को अपनी रिपोर्ट पेश कर दी. यह रिपोर्ट कितनी काम की है और इससे तेलंगाना मुद्दे के समाधान में कितनी मदद मिलेगी, इस पर बहस और चर्चे का सिलसिला जारी है. अब नई बहस गुलाम नबी आजाद के बयान के बाद छड़ी है. गुलाम नबी आज़ाद देश के स्वास्थ्य मंत्री हैं और इनके ऊपर लोगों की बेहतर स्वास्थ्य का ज़िम्मा है. अलबत्ता इससे पहले वह कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हैं और पार्टी ने उन्हें आंध्र प्रदेश का प्रभारी बनाया है. इसलिए जब वह पिछले दिनों स्वास्थ्य के विषय पर एक अंतरराष्ट्रीय कान्फरेंस में भाग लेने के लिए पड़ोसी देश चीन की राजधानी बीजिंग पहुंचे तो वहां भी उनके दिमाग पर तेलंगाना समस्या ही छाई रही. बीजिंग में पत्रकारों से बातचीत के दौरान श्री आजाद ने जस्टिस बी एन कृष्णा की रिपोर्ट को बेकार बताया. उन्होंने कहा कि यह एक लाहासिल रिपोर्ट है क्योंकि इसमें एक दो नहीं बल्कि छह छह सिफारिशें और सुझाव पेश किए गए हैं. यह समस्या का कोई समाधान नहीं है. लेकिन आम लोगों को पता है कि अगर जस्टिस बी एन कृष्णा ने केवल एक दो बातों ही पर  संतोष किया होता तो सरकार और सत्ता पार्टी के जिम्मेदार उसे आधी अधूरी रिपोर्ट करार देकर ठंडे बस्ते में डाल देते. गुलाम नबी आजाद के बयान से भी कुछ ऐसा ही दिखाई देता है. उन्होंने कहा कि तेलंगाना मुद्दे के समाधान के लिए एक बार फिर से शुरूआत करनी होगी. गुलाम नबी, आज़ाद हैं जो चाहें बोल सकते हैं. सत्ताधारी  पार्टी का वरिष्ठ नेता होने के नाते उन्हें और अधिक स्वतंत्रता प्राप्त है. भारत में जनता की महत्वाकांक्षाओं और चाहतों को इसी आसानी से कूड़े दान में डालने की बात कही जाती है.
गुलाम नबी आजाद के बयान को अलग तेलंगाना राज्य बनाने के आंदोलन के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए. इस क्षेत्र की जनता केवल के चंद्रशेखर राव के नेतृत्व में और संयुक्त एक्शन कमेटी के गठन के बाद अलग राज्य बनाने की मांग लेकर सड़कों पर नहीं उतरी हैं. उनके मांग का एक लंबा  इतिहास है. अलबत्ता इतना ही लंबा इतिहास उन्हें ठगे जाने का भी है. यहाँ यह बता देना ज़रूरी है कि हम अलग तेलंगाना राज्य बनाए जाने की वकालत नहीं कर रहे हैं. हमें वकालत करनी भी नहीं चाहिए. जनता की वकालत और उनकी इच्छाओं के अनुसार न्याय करने का अधिकार केवल सरकार के पास होना चाहिए. मुझे नहीं मालूम कि कितने लोग जनता के प्रतिनिधित्व का सही मतलब समझते हैं, लेकिन इसका मूल अर्थ और मंशा यही है कि वह जनता की इच्छाओं के अनुसार प्रशासन और प्रबंधन की जिम्मेदारियों को निभाएंगे. इसलिए लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता सबसे अधिक शक्तिशाली होती  है. पहले यह बात राजनीतिक नेताओं को समझ में आती थी, अब वह उसे समझना नहीं चाहते.
अलग तेलंगाना राज्य के गठन के मसले पर राजनीतिक दलों के दोहरे रवैये को जाँचने और परखने के लिए बहुत दूर जाने की आवश्यकता नहीं है. गुलाम नबी आज़ाद के हालिया बयान से भी राजनीतिक दलों की पोल खुल जाती है. श्री आजाद ने कहा है कि आंध्र प्रदेश विधानसभा में सर्व सहमति से प्रस्ताव पारित किए बिना इस समस्या के समाधान की दिशा में एक कदम भी आगे नहीं बढ़ा जा सकता. आज़ाद साहिब सही फरमा रहे हैं. एक राज्य का विभाजन करके अलग राज्य के गठन के लिए विधायकों में सहमति होनी चाहिए. झारखंड, उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ के गठन से पहले भी ऐसा ही किया गया था. लेकिन विधायकों में सहमति कायम नहीं होने की स्थिति में किसी समस्या का समाधान कैसे निकाला जाए, क्या इस प्रश्न पर विचार करने की जरूरत नहीं है. आंध्र प्रदेश में यही स्थिति है. आंध्र और रॉयल सीमा क्षेत्र के विधायक किसी भी सूरत में अलग तेलंगाना राज्य के गठन का समर्थन करने के लिए तैयार नज़र नहीं आते. जाहिर है ऐसी स्थिति में किया इस समस्या को यूंही सुलगता हुआ छोड़ दिया जाएगा. इसी  के साथ ये सवाल भी पैदा होता है कि इतने वर्षों से अलग तेलंगाना राज्य के गठन की मांग के बावजूद इस संबंध में राजनीतिक पार्टियां एक फैसले पर क्यों नहीं पहुंच पाई हैं. इससे भी बड़ा सवाल यह है कि जब तेलंगाना क्षेत्र में सक्रिय सभी दलों के नेता इसके पक्ष में आवाज़ उठा रहे हैं तो यह दल दूसरे क्षेत्र में सक्रिय अपने नेताओं को समझाने और मनाने में अब तक क्यों नाकाम रहे हैं. आखिर तेलंगाना क्षेत्र में कौन सी सक्रिय राजनीतिक पार्टी है जो अलग तेलंगाना राज्य के गठन के खिलाफ है. अगर ऐसा नहीं है तो फिर जनता के साथ आंख मचोली खेलने के क्या अर्थ हो सकते हैं?
हाल ही में तेलंगाना क्षेत्र से चुने गए सांसद  और विधानसभा सदस्यों द्वारा इस्तीफे को कुछ
 विश्लेषक इसी आंख मचोली का हिस्सा मान रहे हैं. उनका कहना है कि राजनीतिक दलों की नीयत साफ नहीं है. वह तेलंगाना क्षेत्र में अपनी साख को बहाल रखने और उसे ज्यादा मजबूत करने के लिए इस्तीफ़े का नाटक खेल रहे हैं. इसके पीछे इस क्षेत्र में जगन मोहन रेड्डी की बढ़ती लोकप्रियता को भी मुख्य कारण माना जा रहा है.
इस दौरान जनता द्वारा अलग तेलंगाना राज्य के गठन के लिए आंदोलन जारी है. याद रहे कि अब तक सैकड़ों लोग इस आंदोलन की भेंट चढ़ चुके हैं. किसी ने अपनी बात मनवाने के लिए आखरी कदम उठाते हुए अपनी जान की कुर्बानी तक दे दी तो कोई पुलिस के साथ मुठभेड़ में मारा गया. जान दोनों मामलों में गईं. क्षेत्र में अब भी आम जन जीवन अस्त व्यस्त है. यह सिलसिला पिछले दिनों संसद और विधानसभा सदस्यों के इस्तीफे  से ही नहीं बल्कि पिछले कई वर्षों से जारी है. इसकी गहराई में जाएं तो कदम कदम पर सरपीटना पड़ेगा. कभी मायूसी और नाउम्मीदी का साया गहरा होगा तो कभी अपने ऊपर से विश्वास उठता नज़र आएगा. धोखा खाने और ठगे जाने वालों के साथ अक्सर ऐसा होता है. तेलंगाना क्षेत्र के निवासी भी कुछ ऐसा ही महसूस करते होंगे. इस क्षेत्र  में हैदराबाद, आदिलाबाद, करीम नगर, खम्माम, महबूब नगर, मेडक, नालगोंडा, निज़ामाबाद,  रंगारेड्डी और वारंगल जिले शामिल हैं. इसे भाषा के लिहाज़ से तेलगु बहुल्य क्षेत्र माना जाता है. इस सरज़मीन पर उर्दू भाषा और साहित्य ने भी अपने रंग बिखेरे हैं. राष्ट्रीय एकता और अखंडता के ताने बाने को मजबूत और स्थिर बनाए रखने में उर्दू ने बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है. तेलंगाना के अधिकांश क्षेत्र में इसकी खुशबू फैली हुई है. तेलंगाना के गठन की स्थिति में राष्ट्रीय स्तर पर अन्याय का शिकार रही उर्दू भी बराबरी और इनसाफ की उम्मीदवार हो सकती है.
आंध्र प्रदेश का विभाजन करके अलग तेलंगाना राज्य के गठन की मांग करने वालों की दलील है कि राज्य सरकार ने इस क्षेत्र के विकास पर कभी ध्यान नहीं दिया. उसी का नतीजा है कि आज यह क्षेत्र देश के सबसे पिछड़े क्षेत्रों में से एक है. स्थानीय आबादी शिक्षा के क्षेत्र में अन्य क्षेत्रों की तुलना में बहुत पीछे हैं. यहां गरीबी ने अपना घर बना रखा है. बच्चे कुपोषण का शिकार हैं. बाल श्रम का चलन आम है. किसान खेती करके अपने घरबार का पेट नहीं भरपाते हैं तो खुद ही इस दुनिया को अलविदा कह देते हैं. बिजली और पानी की कमी ने क्षेत्र के लोगों का जीना मुश्किल कर दिया है. देशव्यापी स्तर पर देखें तो यह कोई नई परिस्थिति नहीं है. हर दूसरे कदम पर सामाजिक, आर्थिक और शैक्ष्निक पिछड़ेपन के आसार नज़र आजाएंगे. देश का शायद ही कोई कोना होगा जहां पीने के साफ पानी की आपूर्ति लगातार होती होगी. राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों के बंगलों की बात छोड़ दें, उनकी तुलना आम भारतीय नागरिकों के साथ नहीं की जा सकती. उनका समुदाय अलग है, उन्हें खुशी खुशी 
जीने दें, क्योंकि वे परेशान हुए तो हम सबकी समस्सियाएं और भी ज्यादा बढ़ जाएंगी.
तेलंगाना क्षेत्र के नागरिक 1956 में आंध्र प्रदेश राज्य के गठन से पहले भी अलग तेलंगाना राज्य चाहते थे. वह आंध्र के साथ विलय के खिलाफ थे. आंध्र के साथ तेलंगाना को मिलाकर एक राज्य का गठन 1956 के 'जेनटिलमेन समझौते' के तहत किया गया. तेलंगाना वाले इसके हक में नहीं थे. उन्हें आशंका थी कि आंध्र के साथ उनका विकास संभव नहीं हो पाएगा. तेलंगाना वालों ने आज से लग भग 55 साल पहले जो डर ज़ाहिर किया था,  उनके अनुसार वह सौ फीसद सही साबित हुए. इन हालात में अगर वह क्षेत्र में मौजूद संसाधनों को अपने विकास के लिए इस्तेमाल करने के लिए अलग राज्य की मांग कर रहे हैं, तो इसमें क्या बुराई है.
इस सबके बावजूद यह कहना बेजा नहीं होगा कि तेलंगाना वालों की आज जो स्थिति है उसके लिए बहुत हद तक वह खुद भी जिम्मेदार हैं. उन्हें बार बार धोखा दिया गया, और वह बार बार धोखा खाते रहे. 1953 में देश में राज्यों के पुनर्गठन के लिए तैयार किए गए आयोग की रिपोर्ट में भी स्पष्ट रूप से यह बात कही गई थी कि आंध्र के निवासी तो विलय से खुश हैं लेकिन तेलंगाना वालों की कुछ आशंकाएं हैं. इसलिए आंध्र में तेलंगाना के विलय से पहले तेलंगाना वालों की इच्छाओं पर ध्यान देने की जरूरत है. इस आयोग ने सिफारिश की थी कि पहले अलग तेलंगाना राज्य का गठन हो, और फिर 1961 के आम चुनाव के बाद अगर तेलंगाना विधानसभा दो तिहाई बहुमत से प्रस्ताव पारित कर दे तो उसे आंध्र के साथ मिला दिया जाए. उस समय हैदराबाद राज्य के मुख्यमंत्री बी आर राव ने इस बात को स्वीकार किया था कि तेलंगाना की जनता आंध्र में उसके विलय के खिलाफ हैं. इसके बावजूद उन्होंने तेलंगाना क्षेत्र में विरोध की परवाह किए बगैर तेलंगाना और आंध्र के विलय के कांग्रेस आलाकमान के फैसले का समर्थन कर दिया. लेकिन तेलंगाना वालों के आक्रोश को राम करने के लिए विधानसभा में 25 नवम्बर १९५५ को  एक प्रस्ताव पास किया गया. इसके तहत तेलंगाना क्षेत्र को ख़ास तौर से सुरक्षा प्रदान करने की बात कही गई. इस करारदाद में विधानसभा ने तेलंगाना क्षेत्र के लोगों को यह विश्वास दिलाया था कि इस क्षेत्र के विकास पर विशेष ध्यान दिया जाएगा. इसके लिए सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में उन्हें आरक्षण भी देने का सब्ज़ बाग दिखाया गया. उसी के साथ तेलंगाना में कृषि क्षेत्र को विकसित करने के लिए वहां सिंचाई प्रणाली में सुधार लाने का वादा किया गया था. इसके बावजूद वह सब नहीं हो सका जिसकी तमन्ना तेलंगाना के लोगों ने की थी. यहाँ इस बात का ज़िक्र बेजा नहीं होगा कि उस समय भी तेलंगाना क्षेत्र से संबंध रखने वाले कई नेताओं ने इस प्रस्ताव के पालन के बारे में संदेह व्यक्त किया था.
तेलंगाना वालों को इस बात का दर्द शायद अधिक है कि आधुनिक भारत के निर्माता और देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलिल नेहरू ने भी उनके साथ न्याय नहीं किया. पंडित नेहरू नेआंध्र और तेलंगाना के विलय को तलाक के नियमों के साथ शादी करार दिया था, पर आज उसकी सच्चाई कुछ दूसरी ही नजर आती है. आंध्र और तेलंगाना बराबर के शरीक नहीं मालिक और बांदी मालूम होते हैं.
इस संदर्भ में एक बात गौर करने लायक है. भारत अपनी राष्ट्रीय नीति के तहत धार्मिक आधार पर किसी देश या राज्य के बटवारे और गठन का विरोध करता है. यह किसी भी उद्देश्य के लिए सशस्त्र आंदोलन को सही नहीं मानता बल्कि इसे आतंकवाद करार देता है. भारत प्रत्येक समस्या का समाधान शांतिपूर्ण तरीके से निकाले जाने का पक्षधर है. इन बातों को जरा ध्यान में रखें और फिर विचार करें कि धार्मिक आधार पर और सशस्त्र आंदोलन द्वारा जब सूडान के ईसाई अमेरिका और यूरोप के समर्थन से एक अलग देश बनवाने में सफल होते हैं तो हमारे शासक उन्हें बधाई देते हैं. दुनिया के नक्शे पर एक नए देश का स्वागत करते हैं, लेकिन यही व्यवहार अपने देश की जनता के साथ नहीं करते. तेलंगाना क्षेत्र के निवासी लगभग आधी सदी से शांतिपूर्ण तरीके से एक अलग राज्य के गठन की मांग कर रहे हैं और उनकी कोई सुनवाई नहीं हो रही है. हम तो अपने इन नेताओं से बस इतना ही कह सकते हैं कि:
अपनों पे सितम गैरों पे करम
ऐ जान वफ़ा ये ज़ुल्म न कर!

Wednesday, July 13, 2011

पद के लिए यात्रा की राजनीती

कांग्रेस के महासचिव और लोकतांत्रिक भारत के 'युवराज' राहुल गांधी इन दिनों गरीबों मजलूमों को न्याय दिलाने के लिए 'पदयात्रा' कर रहे हैं. अपनी 'सीरियल पदयात्रा के ताजा दौर में राहुल पहले बिहार के फारबिसगंज  गए. रेनू की धरती पर पुलिस की बर्बरतापूर्ण कार्रवाई के शिकार और न्याय की राह तकते लोगों को दिलासा देकर वह वापस चले आए. फारबिसगंज में पुलिस ने कैमरे के सामने जो दरिंदगी दिखाई उससे हलाकू और बुश भी शर्मा जाएं. बात एक फैक्टरी की स्थापना के लिए वर्षों पुराने रास्ते को रोकने से शुरू हुई. फारबिसगंज के भजनपुर गांव के निवासी 3 जून 2011 की शाम को उस के खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर रहे थे. पुलिस से उनका शांतिपूर्ण प्रदर्शन नहीं देखा गया. उसने प्रदर्शनकारियों को भगाने के लिए ताक़त का इस्तेमाल किया. पुलिस की अंधाधुंध फायरिंग से चार लोगों की मौके ही पर ही मौत हो गई. इस हादसे में छह महीने के एक शिशु के अलावा एक गर्भवती महिला भी मारी गईं. इस अमानवीय कार्रवाई  को एक महीने से ज़्यादा का समय गुज़र चुका है लेकिन मृतकों के परिजनों  को अब तक कुछ नेताओं की ओर से सांत्वना और न्याय दिलाने के वादों के अलावा कुछ नहीं मिला है.
राहुल गांधी ने बिहार के फारबिसगंज में चहलकदमी करने के बाद अपनी राजनीति के केंद्र उत्तर प्रदेश का रुख किया. यहाँ खेती की भूमि को सरकार द्वारा जबरदस्ती अधिगृहित किये जाने  और इसका विरोध कर रहे किसानों पर पुलिस की कार्रवाई के खिलाफ आवाज उठाई. राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के पास भट्टा पारसोल  में उन्होंने अपने अंदाज में एक किसान के घर खाना खाया और उसी गांव में खुले आसमान के नीचे रात भी गुजारी. बहुत से लोग इसे राजनीति का नाम देते हैं जबकि कुछ ऐसे भी हैं जिनकी राय में राहुल खेत खलिहानों और ग्रामीण जीवन के मजे लेने के लिए समय समय पर सैरोतफ़्रीह के मकसद से 'पदयात्रा के लिए निकल पड़ते हैं. इसी के साथ यह बात भी सच है कि देश का कोई दूसरा बड़ा राजनीतिक नेता इस तरह गांव की कच्ची पगडंडियों पर नहीं चलता. वह तो सूखे और बाढ़ की  स्थिति में भी केवल हवाई समीक्षा ही करता है.

यहां यह सवाल जरूर उठता है कि राहुल दिल्ली में 'पदयात्रा' क्यों नहीं करते? यह सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि दिल्ली देश की राजधानी है, और यहाँ  से उठने वाली आवाज सत्ता पर बैठे राजनीतिज्ञों के कानों तक आसानी से पहुंच सकती है. एक और विशेष बात यह है कि जिन समस्याओं के समाधान के लिए राहुल दूरदराज़ के ग्रामीण क्षेत्रों में पैदल मार्च का सिलसिला जारी रखे हुए हैं, उनमें से कई एक तो केंद्र सरकार ही द्वारा हल हो सकते हैं. इनमें भूमि अधिग्रहण का मसला भी शामिल है. राहुल चाहें तो यह काम शायद चुटकियों में होजाए.

राहुल गांधी की पदयात्रा के हालिया सिलसिले को उन्हें प्रधानमंत्री बनाए जाने की वकालत के परिदृश्य में भी देखना चाहिए. कांग्रेस के कुछ नेताओं की इस इच्छा को पिछले दिनों जोरदार  ढंग से देश की जनता की इच्छा के रूप में सामने लाने की कोशिश की गई. राहुल गांधी, नेहरू खानदान के सपूत हैं. कांग्रेस पार्टी को एकजुट रखने में इस परिवार को केंद्र की हैसियत हासिल है. इस आधार पर अगर देश की जनता ने कांग्रेस का साथ देना जारी रखा तो राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनने के लिए बहुत अधिक दिनों तक इंतजार नहीं करना पड़ेगा. अलबत्ता इस दौरान उनके इर्द गिर्द घूमने वाले कई नेताओं के बेहोश और बौखला जाने का खतरा जरूर है. इसकी वजह यह है कि राहुल गांधी को तो शायद अपनी किस्मत पर भरोसा है लेकिन आस पास बैठने वालों को नहीं मालूम कि कल उनकी जगह कौन 'युवराज' को प्रधानमंत्री बनाने की वकालत कर रहा होगा? दरअसल    चापलूसों को अपने से बड़े चापलूस से हमेशा डर लगा रहता है. कांग्रेस में ऐसे नेताओं की कमी कभी नहीं रही, और आजकल तो ऐसे हाशिया बरदारों की संख्या कुछ अधिक ही मालूम होती है. परेशानी की वजह उनकी बढ़ती संख्या है.

राष्ट्रीय हितों के परिप्रेक्ष्य में देखें तो यह रुझान बहुत खतरनाक है. इसका कारण यह है कि हवारियों और हाशिया बरदारों को अपने हित के आगे किसी और का नफ़ा नुकसान दिखाई नहीं देता. राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने की रट लगाने वालों का भी यही हाल है. ऐसा नहीं है कि वह नेहरु खानदान के इस चश्मो -चिराग से बहुत प्यार करते हैं या उनके अंदर एक बड़े दूरंदेश नेता की झलक देख रहे हैं, बल्कि इस पूरी कसरत के पीछे सत्ता में मोटी मलाई प्राप्त करने की उनकी इच्छा कारफरमा है. राहुल गांधी के लिए अपने आप को ऐसे 'शुभचिंतकों' से सुरक्षित रखना पहाड़ खोद कर दूध की नहर बहाने से कम नहीं होगा. जवां उम्री में वैसे भी बहकने की आशंका कुछ ज्यादा ही होती है. राहुल गांधी भी जवान हैं. कभी कभी वह भी शायद किसी गरीब के वोट के सहारे के बजाय ऊपर ही से भाग्य लेकर आने वाले युवराज की तरह ऊंचे पद तक पहुंचने की तमन्ना करते होंगे. एकांत में जब कभी वह ऐसा सोचते होंगे तो मन के पर्दे पर दिग विजय सिंह और जनारदन द्विवेदी जैसे 'शुभचिंतकों' का मुस्कुराता और दिलासा देता हुआ चेहरा सामने आ जाता होगा. अलबत्ता दूसरे ही क्षण मनमोहन सिंह जी के सामने आ जाने से उनकी आंखें खुल जाती होंगी.

राहुल गांधी ने अलीगढ में पदयात्रा के दौरान एक बात बड़ी अच्छी कही है. उनके इस बयान को अखबारों में पढ़ने का मौका मिला. इसमें राहुल ने किसानों को संबोधित करते हुए कहा कि उनके साथ अन्याय और अत्याचार इसलिए हो रहे हैं क्योंकि वह एकजुट नहीं हैं. इसी के साथ उन्होंने यह भी कहा कि उत्तर प्रदेश को दलाल चला रहे हैं. राहुल की बातों से सहमती में मुझे कोई हर्ज नहीं लगता. उनकी दोनों बातें सच मालूम होती हैं. मगर पहली अधिक और दूसरी केवल उत्तर प्रदेश ही नहीं बल्कि पूरे देश पर लागू होती हैं. वास्तव में राजनीति के अधिकतर हिस्से में दलालों और चापलूसों की टोली बैठी हुई है. कोई ईमानदारी से कुछ करना भी चाहता है तो बहुत से लोग अपने हाथों में लगे कीचड़ को उसके मुंह पर नहीं तो कम से कम कपड़े ही पर ज़रूर पोंछ डालते हैं. वह बेचारा भी दूसरों जैसा ही हो जाता है.

एक और बात है, जिसका उल्लेख करना ज़रूरी समझता हूं. भारत में यह हाल केवल राजनीति और राजनेताओं तक ही सीमित नहीं है. जिधर देखिये, गंध नज़र आ जाएगी. यहां तो पीर-फकीरों और साधु-संतों  के अलावा अल्लाह और भगवान के साथ भी बहुत से लोग सौदा करने लग जाते हैं. ऐसी स्तिथि देश के विभिन्न हिस्सों में देखने को मिल सकती है लेकिन दिल्ली की बसों में यात्रा करने वाले इस तरह की सौदेबाज़ी को हर रोज़ देख सकते हैं. कुछ सौदा यूं होता है कि 'मां मुरादें पूरी करदे, हलवा बाटुंगा और कुछ इस अंदाज़ में अपना मतलब बताते हैं, "आप मुझे दीजिए, अल्लाह आपको देगा. दोनों मामलों में बात अपने फायदे की होती है. राजनीतिज्ञ एक कदम और आगे जाते हैं. वह लोगों को बताते हैं कि सब कुछ आपका है, लेकिन इस्तेमाल हम करेंगे. उसी के साथ जनता जनारदन से कहते हैं कि आप हमें अपना शासक चुना, हमें अपने ऊपर शासन करने का मौका दें! इतनी बेबाकी से भारत में गोरख-धंधा हो रहा है. इसका अंदाज़ा जनता को रोजाना होता है. वह हर रोज ठगे जाते हैं, लेकिन अपनी स्थिति बदलने के लिए कुछ नहीं कर पाते. यदि कभी वह एकजुट होकर अच्छा काम करते भी हैं तो परिणाम बुरा ही सामने आता है. जरा सोचिये, बिहार में लोगों ने आंखें बंद करके नीतीश कुमार पर विश्वास जताया, परिणाम फारबिसगंज में अन्याय और अत्तियाचार के नंगे नाच के रूप में सामने आया. पश्चिम बंगाल में उन्होंने वामपंथी दलों के वर्षों पुराने सत्ता को किनारे लगाते हुए ममता बनर्जी से आस लगाई, लेकिन चुनाव परिणाम आने के बाद ही तेल उत्पाद के दामों में वृद्धि कर दी गई.

इन हालात में राहुल गाँधी के प्रधानमंत्री बनने से देश में किस तरह तबदीली आजाएगी, ये बड़ा और महत्वपूर्ण सवाल है. राहुल को प्रधानमंत्री  बनाने  में कोई बुराई नहीं है. वह भारत के नागरिक हैं और लोकसभा में बहुमत के समर्थन से कभी भी इस प्रतिष्ठित कुर्सी पर बिराजमान हो सकते हैं.   लेकिन मुझे नहीं लगता कि राहुल के प्रधानमंत्री बनने से भारत की काया पलट हो जाएगी. उसकी एक बड़ी वजह यह है कि देश की विभिन्न समस्याओं के समाधान की तलाश में राहुल गांधी ने जो रास्ता अपनाया है, वह नया नहीं है. इसी के साथ इसमें अक्सर साफ़ नियत की भी कमी नज़र आती है. देश की  समस्याओं के समाधान के लिए योजना और उस पर साफ़ नियत के साथ काम करने की ज़रूरत होती है. राहुल गांधी अगर अपने आपको एक ऐतिहासिक व्यक्ति के रूप में देखना चाहते हैं तो उन्हें इस पर ध्यान देना होगा. उनके पास मौका भी है और समय भी. निर्णय उनके हाथ में है.

Tuesday, June 28, 2011

मुश्किल है खुद को कटघरे में खड़ा करना

उत्तर प्रदेश में एक मीडिया कर्मी के साथ पुलिस की बदसुलूकी ने एक बार फिर ये सवाल खड़ा कर दिया है कि सत्ता और प्रशासन वाले मीडिया के लोगों को आखिर समझते क्या हैं? ये सवाल इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि उसके बाद ही मीडिया वाले अपना बचाव कर सकते हैं. लेकिन इससे भी बड़ा सवाल मेरे नज़दीक ये है कि खुद मीडिया वाले अपने आपको क्या समझते हैं.

मेरे दोनों सवालों पर ढेर सारे सवालात उठ सकते हैं. खासतौर से ऐसे समय में जब मीडिया वाले अपने ऊपर हुए हमले की निंदा करने और दोबारा ऐसी हरकत ना हो, उसे सुनिश्चित करने के लिए धरना प्रदर्शन कर रहे हैं. लेकिन इन हालात में भी सवाल उठाने का साहस मुझे मीडिया के दस वर्षों से भी ज्यादा के तजुर्बे ही ने दिया है. मुझे मालूम है कि मुश्किल वक़्त में खुद को कटघरे में खड़ा करना और भी ज्यादा मुश्किल होता है. इस सब के बावजूद मुझे लगता है कि मीडिया वालों को अपने बारे में विचार करना चाहिए. उन्हें अपने से ये हिसाब माँगना चाहिए कि वो जब दूसरों से सवाल पूछते हैं तो कुछ ऐसे ही कड़वे कसैले सवालों का उनके पास क्या जवाब होगा?

मीडिया में कई बरसों से रहते हुए भी मैं तथाकथित मेनस्ट्रीम मीडिया का हिस्सा नहीं बन पाया. इसमें मेरा अपना ही दोष ज्यादा है. अपना दोष इसलिए कि मैंने ख़बरों के लिए कभी सियासी लीडरों और अफसरशाहों का दरवाज़ा नहीं खटखटाया. मुझे लगता रहा कि खबर वो है जिसका जनम अपने आप होता है. वो सड़कों और चौराहों पर बिखरी पड़ी रहती है और उन्हें ही हम समेट कर एक साथ बहुत से लोगों तक पहुंचाते हैं. मुझे लीडरों की प्रेस कांफ्रेंसों का मतलब समझ में नहीं आता. हम वहां क्यों दौड़े चले जाते हैं और ख़ासतौर से प्रेस कांफ्रेंस में कही जाने वाली बातों पर गौर करने से ज्यादा खाने और उससे भी अधिक पीने की तरफ क्यों देखते हैं? क्या मीडिया वालों के लिए सरकार की बात को लोगों तक पहुंचाना ज्यादा  ज़रूरी है या फिर लोगों की बात सरकार तक!

एक और बात हम मीडिया वाले अक्सर भूल जाते हैं. हमें शैख़ चिल्ली की दुनिया में रहने में मज़ा आता है. हम अपने इर्द गिर्द बहुत बड़ा भरम पाल लेते हैं. मिसाल के तौर पर हम अपने आपको आज़ाद मीडिया वाला कहते हैं. सच बोलने वाला कहते हैं लेकिन करते वही हैं जो कंपनी का मालिक हम से कहलवाना चाहता है. हम दूसरों से ईमानदारी चाहते हैं, मगर अपने लिए नहीं, क्योंकि ऐसी सूरत में हमें ना अपनी गाड़ी मिल पाएगी और ना ही हम अच्छे और पौश एरिया में मकान खरीद सकते हैं. हम रिश्वत और भ्रष्टाचार के खिलाफ तो बहुत लिखते हैं, लेकिन उसके दायरे में खुद को नहीं लाते. मीडिया वाले हक की बात भी बहुत करते हैं, लेकिन उस जगह के लिए नहीं जहाँ वो खुद काम करते हैं. यदि ऐसा नहीं होता तो हमें कभी ये खबर ज़रूर पढने या देखने को मिल जाती कि फलां मीडिया हाउस की कैंटीन से बाल मजदूर आज़ाद कराए गए और फलां मीडिया हाउस के ड्राइवर केवल आठ घंटे की ही डयूटी करते हैं. हमें ये भी सुनने का मौक़ा मिलता कि मीडिया हाउसों में काम करने वालों को कभी प्रताड़ित नहीं किया जाता.

उत्तर प्रदेश की राजधानी में आई बी एन 7  के पत्रकार के साथ पुलिस ने जो दुर्व्यवहार किया वो निंदनीय तो है मगर कोई पहला वाक़ेआ नहीं है. आजकल इसी चैनल में ऊँची पोस्ट पर बिराजमान एक और पत्रकार के साथ इससे भी ज्यादा बुरा सलूक किया गया था. मैं दोनों घटनाओं से आहत हूँ. मुझे तब भी लगा था और आज भी लगता है कि मीडिया वालों के साथ इस सलूक में दूसरों की ग़लती के साथ साथ अपनी भी ग़लती कम नहीं होती.

लड़कियों के साथ छेड़छाड़ और उनकी इज्ज़त लूटने की जो घटनाएं उत्तर प्रदेश में हो रही हैं, उन्हें किसी भी स्तर पर और किसी भी समाज में ठीक करार नहीं दिया जा सकता. इसलिए मीडिया अगर ऐसे सवालों को उठाता है तो ये अच्छी बात है. लेकिन, ज़रा ठहरिये! और सोचिये कि उत्तरप्रदेश में ये सब बस पिछले कुछ ही महीनों से हो रहा है, या इसका सिलसिला बहुत दिनों से चला आ रहा है. ये क़ानून व्यवस्था की बात है या समाज के गिरते स्तर की. इसके साथ ही ये भी जानना होगा कि मीडिया जागा है या उसे जगाया गया है क्योंकि उत्तरप्रदेश में अगले कुछ ही महीनों में इलेक्शन होने वाले हैं.

कहते हैं सच्ची बात कड़वी होती है, मेरी बात भी सच्ची और कड़वी है. कम से कम मैं मीडिया और ख़ासतौर से मीडियाकर्मियों को जितना जान पाया हूँ उसका सार यही है कि भारत के सभी नहीं तो बहुत से मीडियाकर्मी आज भी अपने हक से वंचित हैं और वो दुनिया जहान की बातों को जानने और उन्हें लोगों तक पहुंचाने के बावजूद खुद अपनी तथा अपने ही घर की खबर नहीं होती. उन्हें अपने मौजूदा भरम से खुद को और अपने साथियों को निकालना होगा तभी शायद देश में मीडिया और मीडिया वालों की हालत बदलेगी वरना हम केवल प्रेस कांफ्रेंस में खाने पीने और मार खाने वाले बन कर रह जाएंगे. सियासत वाले बड़ी मोटी चमड़ी के  होते हैं, उन्हें किसी बात से कोई फर्क नहीं पड़ता.

Saturday, June 25, 2011

मुलाक़ात और बात जारी रहे


पाकिस्तान से एक अच्छी खबर आई है. ये सुन कर आजकल किया कभी भी अटपटा लग सकता है, मगर खबर सच्ची मालूम होती है. खबर है कि इस्लामाबाद में भारत पाक ने विदेश सचिवों की बातचीत में ये तय किया है कि दोनों देश आपसी मसले को बातचीत के जरिए सुलझाएँगे. इसी के साथ दोनों ने ये भी तय किया है कि अब एक दुसरे के खिलाफ परोपगंडा नहीं करेंगे. आम लोगों की भाषा में बात करें तो दोनों देशों ने एक दूसरे  को गाली देने से तोबा करने का एलान किया है. इस पर दोनों कितने दिन टिके रहते हैं, ये तो आने वाला वक़्त ही बताएगा लेकिन हमें सकारात्मक ख़बर पर सकारात्मक ढंग से सोचने की आदत डालनी चाहिए. अभी तक हिंदुस्तान में पाकिस्तान और पाकिस्तान में हिंदुस्तान के बारे में अच्छा सोचने की आदत नहीं है. किया हाल ही में हुई बात चीत  से ये सोच बदलेगी?

नए दौर की बातचीत से सभी को कुछ नई उम्मीदें होती हैं, हमें भी होनी चाहिए. आखिर हिंदुस्तान और पाकिस्तान में विदेश नीति और खासतौर से एक दूसरे के साथ रिश्तों के लिए नीति बनाने वालों को अक्ल कियों नहीं आ सकती? कब तक दोनों देशों के पालिसी-साज़ बेवकूफों की जन्नत में रहेंगे? उन्हें एक बात कियों समझ में नहीं आती कि दहशतगर्दी सिर्फ देशों ही के लिए नहीं, इंसानों और इंसानियत के लिए भी खतरनाक है. इसी के साथ ये भी समझना होगा कि दूसरों के हाथों कि कठपुतली बन कर सैकड़ों हज़ारों साल जीने से तो  आज़ादी के साथ एक दिन की ज़िन्दगी जीना बेहतर है.

हिंदुस्तान और पाकिस्तान के आपसी रिश्तों की कहानी पर ग़ौर करें तो मालूम होगा कि दोनों को एक दुसरे पर आज तक भरोसा नहीं हुआ. इतने ही पर बस होता तो शायद अब तक बात बन जाती, लेकिन आज़ादी और बटवारे के बाद दोनों को कभी अपने और अपनी जनता पर भी भरोसा नहीं रहा. यही सबसे खतरनाक बात हुई है. जिस देश के नेताओं और अफसरशाहों को अपने देश की जनता पर भरोसा नहीं होता, उसका हाल कैसा होता है, ये हिंदुस्तान और पाकिस्तान की हालत को देख कर लगाया जा सकता है. हाँ दोनों पड़ोसियों को अगर किसी पर थोडा भी भरोसा है तो वो अमरीका बहादुर हैं. पहले ये गौरव इंग्लैण्ड को हासिल था. अब अमरीका जी जो चाहें दोनों करने के लिए तैयार रहते हैं. इसी लिए जब इस्लामाबाद में विदेश सचिवों की बातचीत के बाद वाशिंगटन ने उस पर ख़ुशी जताई तो मुझे अच्छा नहीं लगा बल्कि उससे भी ज्यादा ये हुआ कि मुझे डर लगने लगा कि एक बार फिर कहीं बहुत से बेक़सूरों की  जान ना चली जाए.

मेरे अंदर ये डर यूँही पैदा नहीं हुआ. इसकी लम्बी तारीख है. जब जब भारत पाक के बीच रिश्ते अच्छे होने की ख़बर आई है, कोई ना कोई आतंकवादी हमला ज़रूर हुआ है. उसके बाद जो कुछ होता है वो सब को पता है.

मुझे इस में कोई शक नहीं के हिंदुस्तान की सरज़मीन पर जो दह्शत्गर्दाना हमले हुए हैं, उसके तार पाकिस्तान से नहीं जुड़े हैं, लेकिन हमने कभी ये जानने  की कोशिश कियों नहीं की कि दिन रात जिहाद जिहाद बकने वाले ओसामा बिन लादेन को जब अमरीका पैदा कर सकता है और काम पूरा होने पर उसे मार सकता है तो किया वो उस पाकिस्तान में आतंकवादियों के दो चार दस ग्रुप तैयार नहीं कर सकता जिसकी ज़मीन के हर कोने में वो शुरू ही से बेरोक टोक अपना काम अंजाम दे रहा है? डेविड कोलमैन हेडली और तहव्वुर हुसैन राणा किया केवल लश्कर ही के आदमी हो सकते हैं, वो सी. आई. ए. के लिए भी कम करने वाले क्यों नहीं हो सकते? इससे भी बड़ा सवाल ये कि जब ओसामा जिहाद के नाम पर अमरीका के इशारों पर काम करता था तो लश्कर किया सी. आई. ए. के लिए काम नहीं कर सकता? एक और अहम बात, आतंकवाद के खिलाफ लड़ने वाला अमरीका हेडली और राना को भारत के हेवाले कियों नहीं करता जबकि वो भारत को अपना दोस्त और आतंकवाद का शिकार मानता है?

भारत और पाकिस्तान के रहनुमाओं को इन सवालों पर विचार करना चाहिए और अमरीका बहादुर से ज्यादा अपने और अपने देश की जनता पर भरोसा करना चाहिए तभी दोनों के रिश्ते बेहतर हो सकते हैं और दोनों देशों  से करप्शन भी मिट सकता है.

Saturday, April 9, 2011

हम जीत सकते हैं

हम जीत सकते हैं. ये एह्सास पहले था या नहीं, अब इस पर बहस बेकार है. हाँ, ये ज़रूर है कि अपने जीतने के एहसास को हमें जिंदा रखना होगा. हम अगर ऐसा नहीं कर पाए तो गाँधी के बाद भारत के अन्ना की भी मौत हो जाएगी. जब गांधी को मारा गया तो उन्हें मारने वाले बहुत कम थे. आज अन्ना के साथ जितने खड़े हैं, उनकी तादाद तो बहुत है मगर अन्ना को रास्ते से हटाने की कोशिश में लगे लोग भी कम नहीं हैं. 

देश में जहाँ भरष्टाचार अपने चरम पर है और साफ़ सुथरी छवि वाले प्रधानमंत्री डाक्टर मनमोहन सिंह को भी अपनी पगड़ी बचाने में दिक्क़त आ रही है, उस हालत में भारत का अन्ना महफूज़ कैसे रह सकता  है, ये अपने आप में सोचने का विषय है. हमें याद है के जब अन्ना हजारे ने लोक पाल बिल की बात उठाई थी तब देश के शाषक वर्ग के लोग चुप थे. वो पेट भर कर उस वक़्त भी खाते रहे जब अन्ना ने आमरण अनशन शुरू कर दिया. अरब देशों में जारी जनक्रांति से अलग इस जन आन्दोलन ने सरकार को उस वक़्त चकित कर दिया जब रोटी, कपडा और माकन के मसलों में उलझने के बावजूद लोगों की एक बड़ी तादाद इस आन्दोलन से जुड़ने लगी. खास तौर से स्कूली  बच्चों ने इस में बड़ी जान फूंकी. 

बालीवुड से लेकर आम जनसेवी और स्टुडेंट्स जब बड़ी तेज़ी के साथ अन्ना के साथ आने लगे, तब जाकर सरकार और उसके मंत्रियों की चालें भी थोड़ी तेज़ हुईं. 

बैठकों के इस दौर में अन्ना की सीधी सादी बात को मानने से जियादा अपने आप को बचाने पर विचार होने लगा. जब अन्ना और उनके साथ पूरे देश की आम जनता की हिम्मत और हौसले को सरकार भांप गई, तब जाकर वो थोडा झुकने पर राज़ी हुई. इसे लोकतंत्र की जीत का नाम दिया जा रहा है. मुझे ये खुशफहमी नहीं है. देशवासियों की लड़ाई सियासतदानों से है, और वो इतनी जल्दी गद्दी नहीं छोड़ते. अगर उनसे देश का राजकाज नहीं संभलता है तो वो देश को बांटने और आम लोगों को मारने और मरवाने से भी नहीं चूकते. भारत के सभी अन्ना को इन्हीं सियासतदानों से खतरा है. 

Wednesday, January 26, 2011

तिरंगा पर सियासत

गणतंत्र दिवस के मोके पर भारतीय जनता पार्टी श्रीनगर के लाल चौक पर तिरंगा फहराना चाहती है. अच्छी बात है. तिरंगा देश का झंडा है और इसके किसी भी कोने और हिस्से में फहराया जा सकता है. ये हमारे देश की पहचान और हमारा गौरव है. इसे हमेशा ऊँचा रखना हमारा और सभी देशवासियों का कर्त्तव्य है, लेकिन क्या इसके नाम सियासत करने की इजाज़त दी जा सकती है. मेरे ख्याल से नहीं. इस विचार के विरोध में ये बात मुखर अंदाज़ से कही जा सकती है कि बीजेपी जो कर रही है, उसमें बुरा क्या है? अपने ही देश में लोगों को तिरंगा फहराने कि इजाज़त कियों नहीं दी जा सकती? ये और इसी तरह के ढेर सारे सवालात, हमारे सामने खड़े कर दिए जाते हैं. इन सब सवालों का हमारे पास शायद जवाब भी नहीं है, लेकिन हम हकीक़त से मुंह नहीं चुरा सकते.
जम्मू वो कश्मीर भारत का अटूट हिस्सा है, इसमें मुझे कोई शक नहीं है, लेकिन उसी तरह नागपुर और लालगढ़ भी हमारे देश का अभिन्न अंग है. इसके बावजूद क्या हम ये मान लें कि हर जगह समानरूप से देश का कानून लागू है और हमें कहीं कोई दिक्क़त नहीं हो रही है. अगर इसका जवाब हाँ में है तो इसका मतलब ये हुआ कि हमें अँधेरे और उजाले में फर्क करना नहीं आता और हम अपनी खुली आँखों से भी सच्चाई देखने की हिम्मत नहीं रखते.
लेकिन इससे क्या होगा? क्या स्थिति पर कोई फर्क पड़ जाएगा, क्या हमने कभी ये सोचने की कोशिश की? अगर नहीं तो हमें सोचना शुरू कर देना चाहिए. क्योंकि तभी हम आगे बढ़ सकते हैं. अपने और दूसरे  देशवासियों के साथ इन्साफ कर सकते हैं. जम्मू वो कश्मीर की राजधानी श्रीनगर के लाल चौक की भी एक रियल्टी है. कश्मीर घाटी की हालत देश के दुसरे हिस्सों से अलग है. यही हकीकत है और हमें ये बात मान लेनी चाहिए. हाँ, इसी के साथ मौजूदा हालत को बदलने के लिए कोशिश भी करनी चाहिए और ये सब की ज़िम्मेदारी है, बीजेपी वालों की भी. इस लिए बीजेपी लाल चौक पर झंडा फहराने का जो नाटक कर रही है, उसे छोड़ देना चाहिए.
कश्मीर घाटी की हालत देश के दूसरे हिस्सों से कैसे अलग है, इसका अंदाज़ा पिछले साल जून में वहां शुरू हुये पथराव और हिंसात्मक मुज़ाहिरों के सिलसिले से लगाया जा सकता है. दरअसल बी जे पी और उसकी जन्मदाता आरएसएस को आज तक देश प्रेम का मतलब समझ में नहीं आया. इनकी नज़र में केवल ज़मीन का टुकरा ही देश है, उसपर बसने वालों से देश नहीं बनता है और अगर बनता भी है तो सभी से नहीं बल्कि कुछ लोगों को छोड.कर. ऐसे लोगो में वो कश्मीर घाटी के बाशिंदे को भी शामिल मानती है. इसीलिए तो उसने लाल चौक पर खुद से तिरंगा फहराने का प्लान बनाया. इसमें बी जे पी ने कभी भी ये कोशिश नहीं की कि श्रीनगर और कश्मीर घाटी के दुसरे हिस्सों से लोग अपने आप हाथों में तिरंगा लिए आते और केवल लाल चौक पर नहीं कश्मीर और पुरे देश में हमारी आन बान और शान कि अलामत कौमी परचम को लहराते और सलाम करते. बी जे पी और दूसरी सभी सियासी पार्टियों को इस सिलसिले में इमानदारी के साथ कोशिश करनी पड़ेगी. इन पार्टियों से ये उम्मीद तो की ही जा सकती है कि कम अज कम तिरंगे को सियासत की भेंट नहीं चढ़ाया जाएगा.



Sunday, January 23, 2011

आओ नया संकल्प लें

गणतंत्र दिवस का त्यौहार करीब है. इस त्यौहार की शुरुआत देश की आज़ादी के कई बरसों बाद हुई. ये आज़ादी आसानी से नहीं मिली थी. इसके लिए बहुत सी कुर्बानियां देनी पड़ी थीं. लेकिन आज़ादी के छे दहाइयों के गुजरने के बाद आज देश की जो सूरतेहाल है, उसका अगर थोडा भी आभास जंगे-आज़ादी के मतवालों को रहा होता तो वो शायद अपनी जानें निछावर नहीं करते. देश अच्छा है, इसकी सभ्यता पुरानी  है, हुकूमत का ढांचा भी लोकतांत्रिक है, इस सब के बावजूद ये कहना सही नहीं होगा कि आज हमारी हालत अच्छी है, हम आजाद हैं. हाँ, अगर यहाँ कोई आजाद है तो वह भ्रष्ट और हर तरह से देश को लूटने वाले लोग हैं. इसका एक महत्वपुर्ण कारण शायद ये है कि भारत कि मिटटी में सब को माफ़ करने का खमीर मौजूद है. दूसरी बड़ी विडंबना ये है कि यहाँ कभी कोई इंक़लाब नहीं आया. शायद पुरे विश्व में भारत ही एक ऐसा देश है जो आज भी जन आन्दोलन से दूर है. यहाँ लोगो की सब कुछ बर्दाश्त कर लेने कि आदत है और इसी आदत कि वजह से उन्हें इससे कोई सरोकार नहीं होता कि असम में जो लोग मारे जाते हैं, वो कौन हैं और क्यूँ मारे जाते हैं? महाराष्ट्र में जब उत्तर भारतियों को मारा पीटा जाता है तो उसके खिलाफ केवल लखनऊ, पटना, रांची और किसी हद तक दिल्ली में प्रदर्शन होता है. मणिपुर को महीनो बंधक बना लिया जाता है, मगर देश के दुसरे हिस्सों में बहुत कम लोगों के कानों   पर जूँ रेंगती है. जम्मू वो कश्मीर की  समस्या को कुछ लोग आज भी हिन्दू-मुस्लिम की ऐनक से देखने की हिमाक़त करते हैं.  इससे भी बढ़कर आतंकवाद का रंग भी कभी हरा और कभी भगवा दिखाई देता है.
आज़ादी के इतने बरसों बाद भी हम देशवासी को एक देशवासी और इंसान क्यूँ नहीं मान पाए, ये एक बड़ा और जवाब तलब सवाल है. हमारे लिए ये प्रश्न इस लिए भी ज्यादा महत्वपूर्ण है क्यूंकि मुझे लगता है कि अगर हमारे अन्दर इंसान को इंसान और गुनहगार को गुनाहगार मानने कि समझ और आदत पड़ जाये तो शायद सूरतेहाल में बड़ी तब्दीली आ सकती है. इस गणतंत्र दिवस पर हमें अपने अन्दर इस तरह की समझ पैदा करने का संकल्प करना होगा. इसके बाद ही हम भ्रष्टाचार के खिलाफ असरदार लड़ाई लड़ सकते हैं. तभी देश से आंतंकवाद का खात्मा हो सकता है और और शायद तभी महंगाई की मार से एक आम आदमी बच सकता है.
इस छोटे से लेख में सभी सब्जेक्ट को छूने का कारण है. ये हमारे नए ब्लॉग का पहला लेख है. इसमें हम उन सभी बातों की तरफ इशारा करना चाहते हैं जो हमें परेशान करती रहती है. हम देश का हिस्सा हैं. भारत केवल जमीन के एक टुकरे का नाम नहीं है. ये एक सभ्यता है जिसमे बहुत सी संस्कृतियाँ हैं. ऐसे में इसे संजोये रखना हमारी भी जिम्मेदारी है. इस सभ्यता से खिलवाड़ करने कि परंपरा को तोडना ज़रूरी है.