Wednesday, July 13, 2011

पद के लिए यात्रा की राजनीती

कांग्रेस के महासचिव और लोकतांत्रिक भारत के 'युवराज' राहुल गांधी इन दिनों गरीबों मजलूमों को न्याय दिलाने के लिए 'पदयात्रा' कर रहे हैं. अपनी 'सीरियल पदयात्रा के ताजा दौर में राहुल पहले बिहार के फारबिसगंज  गए. रेनू की धरती पर पुलिस की बर्बरतापूर्ण कार्रवाई के शिकार और न्याय की राह तकते लोगों को दिलासा देकर वह वापस चले आए. फारबिसगंज में पुलिस ने कैमरे के सामने जो दरिंदगी दिखाई उससे हलाकू और बुश भी शर्मा जाएं. बात एक फैक्टरी की स्थापना के लिए वर्षों पुराने रास्ते को रोकने से शुरू हुई. फारबिसगंज के भजनपुर गांव के निवासी 3 जून 2011 की शाम को उस के खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर रहे थे. पुलिस से उनका शांतिपूर्ण प्रदर्शन नहीं देखा गया. उसने प्रदर्शनकारियों को भगाने के लिए ताक़त का इस्तेमाल किया. पुलिस की अंधाधुंध फायरिंग से चार लोगों की मौके ही पर ही मौत हो गई. इस हादसे में छह महीने के एक शिशु के अलावा एक गर्भवती महिला भी मारी गईं. इस अमानवीय कार्रवाई  को एक महीने से ज़्यादा का समय गुज़र चुका है लेकिन मृतकों के परिजनों  को अब तक कुछ नेताओं की ओर से सांत्वना और न्याय दिलाने के वादों के अलावा कुछ नहीं मिला है.
राहुल गांधी ने बिहार के फारबिसगंज में चहलकदमी करने के बाद अपनी राजनीति के केंद्र उत्तर प्रदेश का रुख किया. यहाँ खेती की भूमि को सरकार द्वारा जबरदस्ती अधिगृहित किये जाने  और इसका विरोध कर रहे किसानों पर पुलिस की कार्रवाई के खिलाफ आवाज उठाई. राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के पास भट्टा पारसोल  में उन्होंने अपने अंदाज में एक किसान के घर खाना खाया और उसी गांव में खुले आसमान के नीचे रात भी गुजारी. बहुत से लोग इसे राजनीति का नाम देते हैं जबकि कुछ ऐसे भी हैं जिनकी राय में राहुल खेत खलिहानों और ग्रामीण जीवन के मजे लेने के लिए समय समय पर सैरोतफ़्रीह के मकसद से 'पदयात्रा के लिए निकल पड़ते हैं. इसी के साथ यह बात भी सच है कि देश का कोई दूसरा बड़ा राजनीतिक नेता इस तरह गांव की कच्ची पगडंडियों पर नहीं चलता. वह तो सूखे और बाढ़ की  स्थिति में भी केवल हवाई समीक्षा ही करता है.

यहां यह सवाल जरूर उठता है कि राहुल दिल्ली में 'पदयात्रा' क्यों नहीं करते? यह सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि दिल्ली देश की राजधानी है, और यहाँ  से उठने वाली आवाज सत्ता पर बैठे राजनीतिज्ञों के कानों तक आसानी से पहुंच सकती है. एक और विशेष बात यह है कि जिन समस्याओं के समाधान के लिए राहुल दूरदराज़ के ग्रामीण क्षेत्रों में पैदल मार्च का सिलसिला जारी रखे हुए हैं, उनमें से कई एक तो केंद्र सरकार ही द्वारा हल हो सकते हैं. इनमें भूमि अधिग्रहण का मसला भी शामिल है. राहुल चाहें तो यह काम शायद चुटकियों में होजाए.

राहुल गांधी की पदयात्रा के हालिया सिलसिले को उन्हें प्रधानमंत्री बनाए जाने की वकालत के परिदृश्य में भी देखना चाहिए. कांग्रेस के कुछ नेताओं की इस इच्छा को पिछले दिनों जोरदार  ढंग से देश की जनता की इच्छा के रूप में सामने लाने की कोशिश की गई. राहुल गांधी, नेहरू खानदान के सपूत हैं. कांग्रेस पार्टी को एकजुट रखने में इस परिवार को केंद्र की हैसियत हासिल है. इस आधार पर अगर देश की जनता ने कांग्रेस का साथ देना जारी रखा तो राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनने के लिए बहुत अधिक दिनों तक इंतजार नहीं करना पड़ेगा. अलबत्ता इस दौरान उनके इर्द गिर्द घूमने वाले कई नेताओं के बेहोश और बौखला जाने का खतरा जरूर है. इसकी वजह यह है कि राहुल गांधी को तो शायद अपनी किस्मत पर भरोसा है लेकिन आस पास बैठने वालों को नहीं मालूम कि कल उनकी जगह कौन 'युवराज' को प्रधानमंत्री बनाने की वकालत कर रहा होगा? दरअसल    चापलूसों को अपने से बड़े चापलूस से हमेशा डर लगा रहता है. कांग्रेस में ऐसे नेताओं की कमी कभी नहीं रही, और आजकल तो ऐसे हाशिया बरदारों की संख्या कुछ अधिक ही मालूम होती है. परेशानी की वजह उनकी बढ़ती संख्या है.

राष्ट्रीय हितों के परिप्रेक्ष्य में देखें तो यह रुझान बहुत खतरनाक है. इसका कारण यह है कि हवारियों और हाशिया बरदारों को अपने हित के आगे किसी और का नफ़ा नुकसान दिखाई नहीं देता. राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने की रट लगाने वालों का भी यही हाल है. ऐसा नहीं है कि वह नेहरु खानदान के इस चश्मो -चिराग से बहुत प्यार करते हैं या उनके अंदर एक बड़े दूरंदेश नेता की झलक देख रहे हैं, बल्कि इस पूरी कसरत के पीछे सत्ता में मोटी मलाई प्राप्त करने की उनकी इच्छा कारफरमा है. राहुल गांधी के लिए अपने आप को ऐसे 'शुभचिंतकों' से सुरक्षित रखना पहाड़ खोद कर दूध की नहर बहाने से कम नहीं होगा. जवां उम्री में वैसे भी बहकने की आशंका कुछ ज्यादा ही होती है. राहुल गांधी भी जवान हैं. कभी कभी वह भी शायद किसी गरीब के वोट के सहारे के बजाय ऊपर ही से भाग्य लेकर आने वाले युवराज की तरह ऊंचे पद तक पहुंचने की तमन्ना करते होंगे. एकांत में जब कभी वह ऐसा सोचते होंगे तो मन के पर्दे पर दिग विजय सिंह और जनारदन द्विवेदी जैसे 'शुभचिंतकों' का मुस्कुराता और दिलासा देता हुआ चेहरा सामने आ जाता होगा. अलबत्ता दूसरे ही क्षण मनमोहन सिंह जी के सामने आ जाने से उनकी आंखें खुल जाती होंगी.

राहुल गांधी ने अलीगढ में पदयात्रा के दौरान एक बात बड़ी अच्छी कही है. उनके इस बयान को अखबारों में पढ़ने का मौका मिला. इसमें राहुल ने किसानों को संबोधित करते हुए कहा कि उनके साथ अन्याय और अत्याचार इसलिए हो रहे हैं क्योंकि वह एकजुट नहीं हैं. इसी के साथ उन्होंने यह भी कहा कि उत्तर प्रदेश को दलाल चला रहे हैं. राहुल की बातों से सहमती में मुझे कोई हर्ज नहीं लगता. उनकी दोनों बातें सच मालूम होती हैं. मगर पहली अधिक और दूसरी केवल उत्तर प्रदेश ही नहीं बल्कि पूरे देश पर लागू होती हैं. वास्तव में राजनीति के अधिकतर हिस्से में दलालों और चापलूसों की टोली बैठी हुई है. कोई ईमानदारी से कुछ करना भी चाहता है तो बहुत से लोग अपने हाथों में लगे कीचड़ को उसके मुंह पर नहीं तो कम से कम कपड़े ही पर ज़रूर पोंछ डालते हैं. वह बेचारा भी दूसरों जैसा ही हो जाता है.

एक और बात है, जिसका उल्लेख करना ज़रूरी समझता हूं. भारत में यह हाल केवल राजनीति और राजनेताओं तक ही सीमित नहीं है. जिधर देखिये, गंध नज़र आ जाएगी. यहां तो पीर-फकीरों और साधु-संतों  के अलावा अल्लाह और भगवान के साथ भी बहुत से लोग सौदा करने लग जाते हैं. ऐसी स्तिथि देश के विभिन्न हिस्सों में देखने को मिल सकती है लेकिन दिल्ली की बसों में यात्रा करने वाले इस तरह की सौदेबाज़ी को हर रोज़ देख सकते हैं. कुछ सौदा यूं होता है कि 'मां मुरादें पूरी करदे, हलवा बाटुंगा और कुछ इस अंदाज़ में अपना मतलब बताते हैं, "आप मुझे दीजिए, अल्लाह आपको देगा. दोनों मामलों में बात अपने फायदे की होती है. राजनीतिज्ञ एक कदम और आगे जाते हैं. वह लोगों को बताते हैं कि सब कुछ आपका है, लेकिन इस्तेमाल हम करेंगे. उसी के साथ जनता जनारदन से कहते हैं कि आप हमें अपना शासक चुना, हमें अपने ऊपर शासन करने का मौका दें! इतनी बेबाकी से भारत में गोरख-धंधा हो रहा है. इसका अंदाज़ा जनता को रोजाना होता है. वह हर रोज ठगे जाते हैं, लेकिन अपनी स्थिति बदलने के लिए कुछ नहीं कर पाते. यदि कभी वह एकजुट होकर अच्छा काम करते भी हैं तो परिणाम बुरा ही सामने आता है. जरा सोचिये, बिहार में लोगों ने आंखें बंद करके नीतीश कुमार पर विश्वास जताया, परिणाम फारबिसगंज में अन्याय और अत्तियाचार के नंगे नाच के रूप में सामने आया. पश्चिम बंगाल में उन्होंने वामपंथी दलों के वर्षों पुराने सत्ता को किनारे लगाते हुए ममता बनर्जी से आस लगाई, लेकिन चुनाव परिणाम आने के बाद ही तेल उत्पाद के दामों में वृद्धि कर दी गई.

इन हालात में राहुल गाँधी के प्रधानमंत्री बनने से देश में किस तरह तबदीली आजाएगी, ये बड़ा और महत्वपूर्ण सवाल है. राहुल को प्रधानमंत्री  बनाने  में कोई बुराई नहीं है. वह भारत के नागरिक हैं और लोकसभा में बहुमत के समर्थन से कभी भी इस प्रतिष्ठित कुर्सी पर बिराजमान हो सकते हैं.   लेकिन मुझे नहीं लगता कि राहुल के प्रधानमंत्री बनने से भारत की काया पलट हो जाएगी. उसकी एक बड़ी वजह यह है कि देश की विभिन्न समस्याओं के समाधान की तलाश में राहुल गांधी ने जो रास्ता अपनाया है, वह नया नहीं है. इसी के साथ इसमें अक्सर साफ़ नियत की भी कमी नज़र आती है. देश की  समस्याओं के समाधान के लिए योजना और उस पर साफ़ नियत के साथ काम करने की ज़रूरत होती है. राहुल गांधी अगर अपने आपको एक ऐतिहासिक व्यक्ति के रूप में देखना चाहते हैं तो उन्हें इस पर ध्यान देना होगा. उनके पास मौका भी है और समय भी. निर्णय उनके हाथ में है.

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