Sunday, July 31, 2011

भारत - पाक संबंध

रंग लाती है हिना पत्थर पे घिस जाने के बाद!

भारत और पाकिस्तान के संबंध में फिलहाल कोई खास बदलाव नहीं आया है, मगर माहौल अच्छा है. अच्छी और महत्वपूर्ण बात यह है कि इसका एहसास दोनों तरफ है. दोनों देशों के सत्ताधारी सकारात्मक बयान दे रहे हैं. एक दूसरे के  प्रतिद्वंद्वी नहीं, हलीफ़ बनने के इच्छुक लगते हैं. यदि ये सिलसिला जारी रहता है तो क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन उत्पन्न हो सकती है.

ये परिवर्तन और इसका सुखद एहसास पाकिस्तान की विदेश मंत्री श्रीमती हिना रब्बानी खर की युवा उम्र के कारण है या फिर इस्लामाबाद और नई दिल्ली के नीति निर्माताओं के कारण, जो भी हो, माहौल अच्छा है. उसे बनाए रखना चाहिए. कहते हैं  आदमी यदि ठान ले तो बहुत कुछ हो सकता है. भारत और पाकिस्तान के नेताओं को भी आपसी रिश्तों में सुधार लाने के लिए प्रतिबद्ध होना पड़ेगा. इस सिलसिले में भारत के विदेश मंत्री एस एम कृष्णा ने 27 जुलाई को श्रीमती हिना रब्बानी के साथ बातचीत से पहले उनका स्वागत करते हुए बड़ी अच्छी बात कही. उन्होंने कहा कि भारत अपने पड़ोसी देश पाकिस्तान के साथ अच्छे रिश्ते चाहता है. यह केवल दोनों देशों ही में शांति के लिए नहीं बल्कि पूरे क्षेत्र और इससे बाहर के लिए भी लाभकरी है. उन्होंने ने कहा कि हमारे और आने वाली पीढ़ियों के ऊपर ये ज़िम्मेदारी है. इस संदर्भ में श्रीमती हिना रब्बानी खर का बयान भी काफी उत्साहजनक है. उन्होंने कहा कि दोनों देशों के बीच संबंधों को अतीत का बंधक नहीं बनाया जा सकता.

भारत और पाकिस्तान के बीच विदेश मंत्री स्तर की बातचीत से पहले दोनों नेताओं ने जो बयान दिए थे, वह उनके बीच आपसी बातचीत के बाद हुई संयुक्त प्रेस कान्फेरेंस में भी नज़र आई. ऐसा पहले कम होता था. विशेष रूप से बातचीत के एक दो दिन बाद तो किसी न किसी ओर से सख्त बयानबाज़ी हो ही जाती थी. इसमें अगर सत्ताधारी दल किसी वजह से चूक जाते तो विपक्ष के नेता मैदान में कूद पड़ते. इस बार सावधानी बरती जा रही है. इसका कारण क्या है और दोनों देश आपसी रिश्तों के संबंध में अपनी नीतियों में इतना बड़ा बदलाव लाने के लिए क्यों राजी हुए हैं, यह जानने के लिए पीछे मुड़कर देखना होगा. लौट पीछे की तरफ ऐ गर्दिशे ऐयाम तू!भूटान की राजधानी थिम्पू में अप्रैल 2010 में सार्क का सोलहवां शिखर सम्मेलन आयोजित हुआ. इस अवसर पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और उनके पाकिस्तानी समकक्ष यूसुफ रजा गिलानी के बीच मुलाकात हुई. दोनों नेताओं ने आपसी रिश्तों को नई दिशा देने का संकल्प किया . इसे दक्षिण एशियाई क्षेत्र की सौभाग्य कहिए कि दोनों ओर से अब तक उसी संकल्प और प्रतिबद्धता को व्यक्त किया जा रहा है. यहाँ यह बता देना ज़रूरी है कि दोनों देशों ने विभिन्न समस्याओं को लेकर अपने रुख़ में कोई बुनियादी बदलाव नहीं किया है. हां, उनके समाधान के लिए बरसों बाद अलग रास्ता ज़रूर अपनाया है. भारतिय उपमहाद्वीप की जनता के लिए दोनों देशों की सरकारों का यह एक बड़ा उपहार है.

भारत और पाकिस्तान के बीच संबंधों को बेहतर बनाने के प्रयासों पर नज़र डालें तो अक्सर नाकाम ही दिखाई देंगे. उसकी एक बड़ी वजह अतीत के घिसे पिटे रास्ते पर चलना था. दोनों देश कश्मीर पर बात करने और नहीं करने को लेकर अटल हो जाते थे . दोनों के अपने अपने राग थे. भारत और पाकिस्तान में सरकार किसी भी पार्टी या व्यक्ति की हो, वही राग अन्दर और बाहर दोनों जगह अलापा जाता था. जब जनता और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के कान भी इस तरह के राग से पक गए तो इसमें घुसपैठ और आतंकवाद का मुद्दा भी जोड़ दिया गया. भारत कश्मीर और अन्य क्षेत्रों में आतंकवादी घटनाओं के लिए पाकिस्तान के सर आरोप मढ़ता तो उधर पाकिस्तान भी अपने अंदरूनी हालात के लिए नई दिल्ली को जिम्मेदार मानता रहा. अपनी धरती पर जब दोनों हारने लगे तो लड़ाई के लिए एक तीसरे देश को चुना गया. इसके लिए अफगानिस्तान से बेहतर विकल्प शायद ही किसी को मिले. अमेरिका ने भी पूर्व सोवियत संघ के खिलाफ लड़ाई के लिए अफगानिस्तान ही को युद्ध के मैदान के रूप में चुना था. इसके लिए आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक युद्ध के तथाकथित योद्धा अमेरिका ने अफगानिस्तान के 'मुजाहिदीन' से मदद ली. उनमें तब मुल्ला उमर और ओसामा बिन लादेन भी शामिल थे. बाद में दोनों अमेरिका के नहीं रहे, इसलिए आतंकवादी बन गए. ओसामा बिन लादेन को अमेरिका ने मार देने  का दावा किया है. सच्चाई का बाहर आना अभी बाकी है. अफ़ग़ानिस्तान में आज भी भारत और पाकिस्तान के बीच बरतरी की जंग जारी है. पाकिस्तान वहां अपना असर बनाए रखना चाहता है तो भारत अपने पारंपरिक संबंधों की बहाली और बर्क़रारी चाहता है.

अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में इस तरह की प्रतिद्विन्दिता और जंगें आम बात हैं. इसलिए अगर भारत और पाकिस्तान अपने अपने असर को बनाए रखने के लिए अफघानिस्तान में मुकाबला कर रहे हैं तो इसमें कोई बुराई नहीं है. लेकिन इसके लिए निर्दोषों को शिकार बनाने से बचना होगा . अतीत में पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आई एस आई ने कई ऐसे आतंकवादी हमलों को अंजाम देने में मदद की जिसमें भारत के राजनयिक और सुरक्षा अधिकारियों के साथ अफगानिस्तान के कई निर्दोष नागरिक भी मारे गए. यह बातें भारत सरकार या मीडिया में प्रकाशित खबरों के आधार पर नहीं कह रहा हूं. मुझे अफ़ग़ानिस्तान के कई ऐसे लोगों से मिलने का मौका मिला जो अपनी वेश भूषा से सियासत्बाज़ नहीं मालूम होते थे. वह युद्ध और युद्ध जैसी स्थिति से परेशान थे. परेशानी में आदमी से सच की उम्मीद होती है, मैंने भी उन पर भरोसा किया.

अब एक तरफ दोनों देश भूटान में किए गए अपने संकल्प और इरादे पर कायम हैं तो दूसरी ओर परंपरागत प्रतिद्वंद्वी के रूप में अफ़ग़ानिस्तान में लड़ाई लड़ रहे हैं. उसे आदत और स्वभाव का नतीजा कहा जा सकता है. दोनों देशों के नीति निर्माताओं ने किसी हद तक अपनी आदतें बदल ली है स्वभाव वह बदल नहीं सकते.भारत और पाकिस्तान के नेताओं ने बातचीत के लिए जिस रास्ते को चुना है, वह बहुत ही आसान है. परीक्षा की घड़ी में ऐसा ही किया जाता है. पहले आसान सवालों को हल किया जाता है, फिर मुश्किल सवालों पर ध्यान दिया जाता है. जो उम्मीदवार इस सिद्धांत पर अमल नहीं करते वह असफल हो जाते हैं. भारत और पाकिस्तान भी अब तक इसलिए विफल होते आए हैं. दोनों आसान और जल्दी से हल होने वाली समस्याओं पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं. इसके लिए माहौल भी तैयार क्या जा रहा है.

इस्लामाबाद और नई दिल्ली के बीच संबंधों में सर्दमेहरी के लिए कश्मीर को जिम्मेदार माना जाता है. दोनों ने इस पर बातचीत जारी रखने का संकल्प किया है. इस दौरान एक एक करके छोटी छोटी समस्याओं और मतभेदों को सुलझाने की कोशिशें की जा रही हैं. एस एम कृष्णा और श्रीमती हिना रब्बानी खर की बातों से हम यही नतीजा निकाल सके हैं. लेकिन कश्मीर के कुछ नेता पाकिस्तान को इतनी आसानी से आगे नहीं बढ़ने देंगे. पाकिस्तान के लिए भी कश्मीर के मुद्दे को जीवित रखना कभी कभी फायदेमंद लगता है. इसलिए हिना रब्बानी ने भी कृष्णा के साथ बातचीत से पहले कुछ कश्मीरी नेताओं से मुलाक़ात की थी. उसे पाकिस्तान की पारंपरिक और पुरानी नीति का हिस्सा मानती हैं. उन्हें इस तरह की बैठकों में कोई बुराई नज़र नहीं आती. भारत में कुछ लोगों को इस पर आपत्ति ज़रूर हुई है. उनकी आपत्ति बहुत उचित नहीं लगती. कश्मीर के अलगाववादी नेताओं से नई दिल्ली में सत्ता की बागडोर संभालने वाले भी मिलते रहे हैं. अब उनसे मुलाकात और बात के लिए एक तीन सदस्यीय टीम मेहनत कर रही है.

जम्मू वो कश्मीर पर दोनों देशों का दावा है. भारत उसे अपना अभिन्न हिस्सा मानता है. पाकिस्तान कहता है कि यह हिस्सा उसे मिलना चाहिए था. कश्मीर में कुछ ऐसे भी लोग हैं जो दोनों से अलग रहना चाहते हैं. ऐसे लोगों की संख्या बहुत कम है . इस के आधार पर देशों का बटवारा नहीं किया जा सकता. कश्मीर की आज़ादी की  भी दूर दूर तक कोई संभावना नजर नहीं आती. भारत के साथ ज़बरदस्ती नहीं की जा सकती. पाकिस्तान को ताक़त के बल पर पाक अधिकृत कश्मीर छोड़ने  के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता.

ऐसी स्थिति में दोनों देशों के लिए एक रास्ता बचा था. वह परीक्षा में पहले आसान सवालों को हल करने वाला रास्ता था. कामो-बेश 60 वर्षों के बाद भारत और पाकिस्तान के नीति निर्माताओं को बुद्धि आई है. दोनों ये समझने के लिए तैयार हो गए हैं कि आसान तरीके से बड़ी समस्याओं का समाधान हो सकता है. भारत और पाकिस्तान के बीच भी सभी महत्वपूर्ण और बड़े मुद्दे बातचीत के जरिए हल हो सकते हैं. बस इसके लिए धैर्य की आवश्यकता है. एक मंजिल की ओर लगातार बढ़ते रहने से एक दिन वो मिल ही जाती है. श्रीमती हिना रब्बानी खर और एस एम् कृष्णा ने नई दिल्ली में नाश्ते पर मुलाकात करने के बाद अगले साल पाकिस्तान में दोपहर का खाना खाने का इरादा जाहिर किया है. इसमें अगर उन्हें सफलता मिलती है तो फिर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह काबुल में रात का खाना खा कर अपना सपना पूरा होते देख सकते हैं. यह मौका पूरे क्षेत्र की जनता के लिए सार्वजनिक ख़्वाब पूरा होने जैसा ही होगा.

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