Saturday, July 30, 2011

पत्र दिवस

रफ़्तार के चक्कर में खोती लेखनी की धार

मोहम्मद शहजाद


संदेश माध्यमों ने सुस्त-रफ़्तार कबूतरों से लेकर तेज -रफ़्तार ई-मेल और एस.एम.एस. तक का सफर तय कर लिया है। इंटरनेट और सेल-फोन जैसी अत्याधुनिक टेक्नोलॉजी ने भले ही फौरन पैगाम भेजने और पाने की हमारी खवाहिश पूरी कर दी हो... लेकिन रफ़्तार के चक्कर में हम कहीं न कहीं अपनी लेखनी की धार खोते जा रहे हैं।

ज़रा याद कीजिए! आपने किसी को पिछला पत्र कब लिखा था? शायद ही हम में से कोई हो, जिसे ये याद हो। अब तो पूरी एक ऐसी नई नस्ल परवान पा चुकी है जिसे खत-व-किताबत के बारे में कोई ज्ञान ही नहीं है। पत्र-लेखनी के इसी महत्व को याद करने के मकसद से ३१ जुलाई को 'विश्व पत्र दिवस' मनाया जाता है।

आमतौर पर 'डे' या विशेष दिवस मनाने का ये चलन पश्चिम से आया है लेकिन पत्र-लेखनी की शानदार रिवायत को याद करने की ये कोशिश हमारे अपने ही देश से शुरू हुई है। पत्र-दिवस मनाने के लिए ३१ जुलाई का चयन करने के पीछे कोई खास वजह तो नहीं है... लेकिन इस मुहिम को छेडने वालों में से एक शरद श्रीवास्तव इसे मशहूर लेखक मुंशी प्रेम चंद को समर्पित करते हैं जिनका जन्मदिन भी ३१ जुलाई ही है। वैसे ये भी माना जाता है कि इसी दिन इंग्लैंड में पहला पत्र पोस्ट हुआ था।

वैसे डाक-सेवाएं आज भी कार्यरत हैं... लेकिन अब उनका महत्व सरकारी पत्र-व्यवहार और पार्सल वगैरह भेजने तक ही सीमित रह गया है। सूचना प्रौद्योगिकी के इस दौर में लोगों ने डाकघरों का रुख  करना कम कर दिया है। अब न लोगों को डाक बाबुओं का इंतजार रहता है और न ही डाकियों के पास खातों का वो अंबार रहता है। जिसे देखो बस ई-मेल, सोशल नेटवर्किंग साइट्‌स और शार्ट मेसेज सर्विस यानी एस.एम.एस. पर उल्टी-सीधी भाषा लिखने में लगा है। और ऐसा हो भी क्यों ना! आखिर इस भाग-दौड  भरी ज़िन्दगी में लोगों के पास अंतर्देशीय, पोस्टकार्ड और लिफाफे डाकघर से लाने, उसपर हाथ से लिखने और पोस्ट करने की फुर्सत ही कहां है।

लेकिन जल्द पैग़ाम भेजने की चाहत में हमसे पत्राचार का वो रिवायती तरीका छूटता गया, जिससे लोग लेखनी का गुर सीखते थे। देश में ही कई मिसालें ऐसी हैं जिनके खत एक साहित्य के तौर पर याद किए जाते हैं। उनमें पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का अक्सर ज़िक्र आता है जो अपनी बेटी इंदिरा जी को जेल ही पत्र लिखकर ज्ञानवर्धक खजाना भेजते रहते थे। दूसरे मशहूर शायर मिर्ज़ा गालिब के खातों की मिसाल दी जाती है जिनके खत से ऐसा लगता है कि वो सामने बैठे किसी शख्श से गुफ्तगू कर रहे हों।

लोग पत्र लिखते थे तो उससे उसका पूरा व्यक्तित्व झलकता था। हैंड-राइटिंग के विशेषज्ञ तो आज भी लिखावट से व्यक्तित्व का अंदाज़ा लगा लेते हैं। हस्तलिखित पत्रों की सीधी, आडी, तिरछी लाइनों से उसके लिखने वालों की जेहनियत का आभास हो जाता है। खत की हैंडराइटिंग लिफाफे से खत का मजमून भांप लेने का मुहाविरा इसी लिए काफी प्रचलित है। सुदूर बैठे किसी भी व्यक्ति को खत पा जाने भर से ही उसके वतन की मिट्‌टी की खुशबू आने लगती थी। अपने नजदीकियों और करीबियों को खत लिखने और उसका जवाब आने के इंतजार की शिद्दत ही अजीब थी। फिर प्रेम-पत्र लिखने और पढने का तो दौर ही अजीब था। ऐसे खत बरसों तक लोगों की किताबों, संदूक, बक्से की शोभा बने रहते थे और ऐसे सहेज कर रखे जाते थे जैसे कोई बहुत कीमती सरमाया हो। पत्र की अहमियत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मुंबईया फिल्मों में भी इसपर अनेक गाने लिखे गए हैं। 'नाम' फिल्म में तो पंकज उधास के एक कन्सर्ट में ''चिट्ठी आई है आई है चिट्ठी आई है'' गाने पर पाकिस्तानी अफताब भाई भी रोने पर मजबूर हो जाते हैं। बहरहाल पत्र-दिवस मनाने का मकसद इस खोते हुए चलन से आज की पीढी को जागरुक करना है।

2 comments:

  1. अफसर जी, आपका यह लेख आज जनसत्ता में पढ़ा. बहुत अच्छा लगा. इस पर बहुत पहले हमने एक लेख लिखा था, जो कई पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ. फ़िलहाल आपका यह लेख हम 'डाकिया डाक लाया' ब्लॉग पर साभार प्रकाशित कर रहे हैं !! www.dakbabu.blogspot.com

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  2. shukriya bhai, waise ye lekh mere dost Mohammad Shahzad ka hai.

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